Thursday, October 20, 2011

अथ गोरक्ष उपनिषत्॥

अथ गोरक्ष उपनिषत्॥

श्री नाथ परमानन्द है विश्वगुरु है निरञ्जन है
विश्वव्यापक है महासिद्धन के लक्ष्य है तिन प्रति हमारे आदेश
होहु॥ इहां आगे अवतरन॥ एक समै विमला नाम महादेवी किंचितु
विस्मय जुक्त भईश्रीमन्महा गोरक्षनाथ तिनसौंपूछतु है।
ताको विस्मय दूर करिबै मैं तात्पर्य है लोकन को मोक्ष करिबै हेतु
कृपालु तासौं महाजोग विद्या प्रगट करिबे को तिन के एसे श्री नाथ
स्वमुख सौं उपनिषद् प्रगट अरै है। गो कहियै इन्द्रिय तिनकी
अन्तर्यामियासों रक्षा करे है भव भूतन की तासों गोरक्षनाथ
नाम है। अरु जोग को ज्ञान करावै है या वास्तै उपनिषद् नाम है।
यातैं ही गोरक्षोपनिषद् महासिद्धनमें प्रसिद्ध हैं। इहां आगै
विमला उवाच॥ मूलको अर्थ॥ जासमै महाशुन्य था आकाशादि
महापंचभूत अरु तिनही पञ्चभूतनमय ईश्वर अरु जीवादि कोई
प्रकार न थे तब या सृष्टि कौ करता कौन था। तात्पर्य ए है
कि नाना प्रकार की सृष्टि होय वै मै प्रथम कर्ता महाभूत है
अरु वैही शुद्ध सत्वांशले के ईश्वर भ वैही मलिन सत्व करि
जीव भये तौतौ साक्षात् कर्त्ता न भय तब जिससमै ए न थे तब
को अनिर्वचनीय पदार्थ था॥ सो कर्त्ता सो कर्त्ता सो कर्त्ता कौन
भयो एसे प्रश्न पर। श्री महागोरक्षनाथ उत्तर करै है श्री
गोरक्षनाथ उवाच। आदि अनादि महानन्दरूप निराकार साकार
वर्जित अचिन्त्य को पदार्थ था तांकु हे देवि मुख्य कर्ता जानियै
क्यों कि निराकार कर्ता होय तौ आकार इच्छा धारिबे मैं विरुद्ध
आवे है। साकार करता होय तौ साकार को व्यापकता नहीं है
यह विरुद्ध आवै है। तातैं करता ओही है जो द्वैताद्वैत रहित
अनिर्वचनीय नथा सदानन्द स्वरूप सोही आजे कुं वक्ष्यमाण है।
इह मार्ग मै देवता कोन है यह आशंका वारनै कहै है। अद्वैतो
परि म्महानन्द देवता। अद्वैत ऊपर भयो तब द्वैत ऊपर तौ
स्वतः भयो॥ इह प्रकार अहं कर्त्ता सिद्ध तूं जान ञ्छह करता
अपनी इच्छा शक्ति प्रगट करी। ताकरि पीछे पिण्ड ब्रह्माण्ड
प्रगट भ तिनमै अव्यक्त निर्गुन स्वरूप सों व्यापक भयो। व्यक्त
आनन्द विग्रह स्वरूप सों विहार करत भयौ पीछै ज्यौही मैं एक
स्वरूप सों नव स्वरूप होतु भयौ -- तैं सत्यनाथ अनन्तर
सन्तोषनाथ विचित्र विश्व के गुन तिन सों असंग रहत भयौ यातैं
संतोषनाथ भयौ। आगे कूर्मनाथ आकाश रूप श्री आदिनाथ।
कूर्मशब्द तै पाताल तरै अधोभूमि तकौ नाम कूर्मनाथ। बीच के
सर्वनाथ पृथ्वीमण्डल के नाथ औरप्रकार सप्तनाथ भ।
अनन्तर मत्स्येन्द्रनाथ के पुनह पुत्र श्री -- जगत की उत्पत्ति के हेत
लाये माया कौ लावण्य तांसौ असंग जोगधर्म -- द्रष्टा रमण
कियौ है आत्मरूप सौं सर्व जीवन मैं। तत् शिष्य गोरखनाथ।


गो कहियै वाक्‍शब्द ब्रह्म ताकी, र कहियै
रक्षा करै, क्ष कहियै क्षय करि रहित अक्षय ब्रह्म
एसे श्रीगोरक्षनाथ चतुर्थरूप भयो और प्रकार नव स्वरूप
भयो तामे एक निरन्तरनाथ कुं किह मार्ग करि पायौ जातु। ताकौ
कारन कहतु हैं। दोय मार्ग विश्व मै प्रगट कियो है कुल अरु अकुल।
कुल मार्ग शक्ति मार्गः अकुल मार्ग अखण्डनाथ चैतन्य मार्ग
तन्त्र अंस जोग तिनमै किंचित प्रपञ्च की॥ एवं॥ या रीत मै
द्वैताद्वैत रहित नाथ स्वरूप तै व्यवहार के हेतु अद्वैत
निर्गुणनाथ भयौ अद्वैत तै द्वैत रूप आनन्द विग्रहात्म नाथ
भयौ तामै ही मो एक तैं मैं विशेष व्यवहार के हेतु नव
स्वरूप भयौ तिन नव स्वरूप कौ निरूपण। श्री कहियै अखण्ड
शोभा संजुक्त गुरु कहिये सर्वोपदेष्टा आदि कहियै इन वक्ष्यमाण
नव स्वरूप मैं प्रथम नाथ ना करि नाद ब्रह्म को
बोध करावे थ करि थापन कि है त्रय जगत जित एसो
श्री आदिनाथ स्वरूप। अनन्तर मत्स्येन्द्र नाथ। ता पाछ तत् पुत्र
तत् शिष्य उदयनाथ श्री आदिनाथ तैं जोग शास्त्र प्रगट कियौ
द्वहै। योग कौ उदय जाहरि महासिद्ध निकरि बहुत भयो आतैं
उदयनाथ नाम प्रसिद्ध भयो। अनन्तर दण्डनाथ ताही जोग के
उपदेश तै खण्डन कियो है। काल दण्डलोकनि कौ य्यातै
दण्डनाथ भयौ॥
अगै मत्स्यनाथ असत्य माया स्वरूपमय काल ताको खंडन
कर महासत्य तैं शोभत भयौ आण निर्गुणातीत ब्रह्मनाथ ताकुं
जानैयातै आदि ब्राह्मण सूक्ष्मवेदी। ब्राह्मण वेद पाठी होतु है
ऋग यजु साम इत्यादि कर इनके सूक्ष्म वेदी खेचरी मुद्रा अन्तरीय
खेचरी मुद्रा बाह्यवेषरी कर्ण मुद्रा मुद्राशक्ति की निशक्ति
करबी सिद्धसिद्धान्त पद्धति के लेख प्रमाण। अनन्त मठ मन्दिर
शिव शक्ति नाथ अरु ईच्छा शिव तन्तुरियं जज्ञोपवीत शिव तं तु
आत्मा तं तु जज्ञ जोग जग्य उपवीत शयाम उर्णिमासूत्र। ब्रह्म
पदाचरणं ब्रह्मचर्य शान्ति संग्रहणं गृहस्थाश्रमं
अध्यात्म वासं वानप्रस्थं स सर्वेच्छा विन्यासं संन्यासं आदि
ब्राह्मण कहिवे मै चतुर वर्ण कौ गुरु भयौ अरु इहां च्यारों आश्रम
कौ समावेस जामै होय है य्यातै ही अत्याश्रमी आश्रमन कोहु गुरु
भयौ। सो विशेष करि शिष्य पद्धति मै कह्यो ही है। तात्पर्य
भेदाभेद रहित अचिन्त्य वासना जुक्त जीव होय ते तौ कुल मार्ग
करियौ मै आवतु है अरु समस्त वासना रहित भ है अन्तह्करण
जिनके ऐसै जीव जोग भजन मै आवतु है ऐसो मार्गन मै अकुल मार्ग
है। और शास्त्र वाक् जालकर उपदेश करतु है। मैरो संकेत
शास्त्र है प्तो शुन्य कहिये नाथ सोही संकेत है इह मार्ग में
देवता कोन है यह आशंका वारन कहै है ईश्वर संतान।
संतान दोय प्रकार कौ नाद रूप विन्दु विन्दु नाद रूप। शिष्य
विन्दु रूप पूत्र नाथ रूप नाद शक्तिरूप विन्दु नादरूप करि भ।
शिष्य सौ प्रथम कहै नवनाथ स्वरूप शक्ति विन्दु रूप पर शिव
सोही ईश्वर नाम कर मैरो संतान है। ता करि विश्व की प्रवृत्ति
करतु है। जोग मत अष्टाश्ण्ग जोग मुख्य कर षंडग जोग अकुल कहनै
सो अवधूत जोग जोग मत सौं साधन अष्टाश्ण्ग जोग। आदि ब्राह्मणा
ब्राह्मण क्षत्री वैश्व शूद्रच्यार वर्ण करि पृथ्वी भरी है
तिनमै ब्राह्मण वर्ण मुख्य है। ब्राह्मण किसको कहियै ब्राह्मंकू
सगुण ब्रह्म द्वारे निर्गुण ब्रह्म करिजानै सो ब्राह्मण ए जोगीश्वर
सगुणनाथ गम्य पदार्थ। आनन्द विग्रहात्मनाथ उपदेष्टा उपास्य
रूप अत्याश्रमी गुरु अवधूत जोग साधन मुमुक्षु अधिकारी बन्ध
मोक्ष रहित कोक अनिर्वचनीय मोक्ष मोक्ष ऐसो आ ग्रन्थ मै निरूपण
है सो जो को पढे पढावै जाको अनन्त अचिन्त्य फल है।
Gorakṣa Upaniṣad
śrī nātha paramānanda hai viśvaguru hai nirañjana hai
viśvavyāpaka hai mahāsiddhana ke lakṣya hai tina prati hamāre ādeśa
hohu|| ihāṁ āge avatarana|| eka samai vimalā nāma mahādevī kiṁcitu
vismaya jukta bhaīśrīmanmahā gorakṣanātha tinasauṁpūchatu hai|
tāko vismaya dūra karibai maiṁ tātparya hai lokana ko mokṣa karibai hetu
svamukha sauṁ upaniṣad pragaṭa arai hai| go kahiyai indriya tinakī
antaryāmiyāsoṁ rakṣā kare hai bhava bhūtana kī tāsoṁ gorakṣanātha
nāma hai| aru joga ko jñāna karāvai hai yā vāstai upaniṣad nāma hai|
yātaiṁ hī gorakṣopaniṣad mahāsiddhanameṁ prasiddha haiṁ| ihāṁ āgai
vimalā uvāca|| mūlako artha|| jāsamai mahāśunya thā ākāśādi
mahāpaṁcabhūta aru tinahī pañcabhūtanamaya īśvara aru jīvādi koī
prakāra na the taba yā sṛṣṭi kau karatā kauna thā| tātparya e hai
ki nānā prakāra kī sṛṣṭi hoya vai mai prathama kartā mahābhūta hai
aru vaihī śuddha satvāṁśale ke īśvara bhae vaihī malina satva kari
jīva bhaye tauetau sākṣāt karttā na bhaya taba jisasamai e na the taba
koī anirvacanīya padārtha thā|| so karttā so karttā so karttā kauna
bhayo ese praśna para| śrī mahāgorakṣanātha uttara karai hai śrī
gorakṣanātha uvāca| ādi anādi mahānandarūpa nirākāra sākāra
varjita acintya koī padārtha thā tāṁku he devi mukhya kartā jāniyai
kyoṁ ki nirākāra kartā hoya tau ākāra icchā dhāribe maiṁ viruddha
āve hai| sākāra karatā hoya tau sākāra ko vyāpakatā nahīṁ hai
yaha viruddha āvai hai| tātaiṁ karatā ohī hai jo dvaitādvaita rahita
anirvacanīya nathā sadānanda svarūpa sohī āje kuṁ vakṣyamāṇa hai|
iha mārga mai devatā kona hai yaha āśaṁkā vāranai kahai hai| advaito
pari mmahānanda devatā| advaita ūpara bhayo taba dvaita ūpara tau
svataḥ bhayo|| iha prakāra ahaṁ karttā siddha tūṁ jāna ñchaha karatā
apanī icchā śakti pragaṭa karī| tākari pīche piṇḍa brahmāṇḍa
pragaṭa bhae tinamai avyakta nirguna svarūpa soṁ vyāpaka bhayo| vyakta
ānanda vigraha svarūpa soṁ vihāra karata bhayau pīchai jyauhī maiṁ eka
svarūpa soṁ nava svarūpa hotu bhayau -- taiṁ satyanātha anantara
santoṣanātha vicitra viśva ke guna tina soṁ asaṁga rahata bhayau yātaiṁ
saṁtoṣanātha bhayau| āge kūrmanātha ākāśa rūpa śrī ādinātha|
kūrmaśabda tai pātāla tarai adhobhūmi takau nāma kūrmanātha| bīca ke
sarvanātha pṛthvīmaṇḍala ke nātha auraprakāra saptanātha bhae|
anantara matsyendranātha ke punaha putra śrī -- jagata kī utpatti ke heta
lāye māyā kau lāvaṇya tāṁsau asaṁga jogadharma -- draṣṭā ramaṇa
kiyau hai ātmarūpa sauṁ sarva jīvana maiṁ| tat śiṣya gorakhanātha|
go kahiyai vākśabda brahma tākī, ra kahiyai
rakṣā karai, kṣa kahiyai kṣaya kari rahita akṣaya brahma
ese śrīgorakṣanātha caturtharūpa bhayo aura prakāra nava svarūpa
bhayo tāme eka nirantaranātha kuṁ kiha mārga kari pāyau jātu| tākau
kārana kahatu haiṁ| doya mārga viśva mai pragaṭa kiyo hai kula aru akula|
kula mārga śakti mārgaḥ akula mārga akhaṇḍanātha caitanya mārga
tantra aṁsa joga tinamai kiṁcita prapañca kī|| evaṁ|| yā rīta mai
dvaitādvaita rahita nātha svarūpa tai vyavahāra ke hetu advaita
nirguṇanātha bhayau advaita tai dvaita rūpa ānanda vigrahātma nātha
bhayau tāmai hī mo eka taiṁ maiṁ viśeṣa vyavahāra ke hetu nava
svarūpa bhayau tina nava svarūpa kau nirūpaṇa| śrī kahiyai akhaṇḍa
śobhā saṁjukta guru kahiye sarvopadeṣṭā ādi kahiyai ina vakṣyamāṇa
nava svarūpa maiṁ prathama nātha nā kari nāda brahma ko
bodha karāve tha kari thāpana kie hai traya jagata jita eso
śrī ādinātha svarūpa| anantara matsyendra nātha| tā pācha tat putra
tat śiṣya udayanātha śrī ādinātha taiṁ joga śāstra pragaṭa kiyau
dvahai| yoga kau udaya jāhari mahāsiddha nikari bahuta bhayo ātaiṁ
udayanātha nāma prasiddha bhayo| anantara daṇḍanātha tāhī joga ke
upadeśa tai khaṇḍana kiyo hai| kāla daṇḍalokani kau yyātai
daṇḍanātha bhayau||
agai matsyanātha asatya māyā svarūpamaya kāla tāko khaṁḍana
kara mahāsatya taiṁ śobhata bhayau āṇa nirguṇātīta brahmanātha tākuṁ
jānaiyātai ādi brāhmaṇa sūkṣmavedī| brāhmaṇa veda pāṭhī hotu hai
ṛga yaju sāma ityādi kara inake sūkṣma vedī khecarī mudrā antarīya
khecarī mudrā bāhyaveṣarī karṇa mudrā mudrāśakti kī niśakti
karabī siddhasiddhānta paddhati ke lekha pramāṇa| ananta maṭha mandira
śiva śakti nātha aru īcchā śiva tanturiyaṁ jajñopavīta śiva taṁ tu
ātmā taṁ tu jajña joga jagya upavīta śayāma urṇimāsūtra| brahma
padācaraṇaṁ brahmacarya śānti saṁgrahaṇaṁ gṛhasthāśramaṁ
adhyātma vāsaṁ vānaprasthaṁ sa sarvecchā vinyāsaṁ saṁnyāsaṁ ādi
brāhmaṇa kahive mai catura varṇa kau guru bhayau aru ihāṁ cyāroṁ āśrama
kau samāvesa jāmai hoya hai yyātai hī atyāśramī āśramana kohu guru
bhayau| so viśeṣa kari śiṣya paddhati mai kahyo hī hai| tātparya
bhedābheda rahita acintya vāsanā jukta jīva hoya te tau kula mārga
kariyau mai āvatu hai aru samasta vāsanā rahita bhae hai antahkaraṇa
jinake aisai jīva joga bhajana mai āvatu hai aiso mārgana mai akula mārga
hai| aura śāstra vāk jālakara upadeśa karatu hai| mairo saṁketa
śāstra hai pto śunya kahiye nātha sohī saṁketa hai iha mārga meṁ
devatā kona hai yaha āśaṁkā vārana kahai hai īśvara saṁtāna|
saṁtāna doya prakāra kau nāda rūpa vindu vindu nāda rūpa| śiṣya
vindu rūpa pūtra nātha rūpa nāda śaktirūpa vindu nādarūpa kari bhae|
śiṣya sau prathama kahai navanātha svarūpa śakti vindu rūpa para śiva
sohī īśvara nāma kara mairo saṁtāna hai| tā kari viśva kī pravṛtti
karatu hai| joga mata aṣṭāśṇga joga mukhya kara ṣaṁḍaga joga akula kahanai
so avadhūta joga joga mata sauṁ sādhana aṣṭāśṇga joga| ādi brāhmaṇā
brāhmaṇa kṣatrī vaiśva śūdracyāra varṇa kari pṛthvī bharī hai
tinamai brāhmaṇa varṇa mukhya hai| brāhmaṇa kisako kahiyai brāhmaṁkū
saguṇa brahma dvāre nirguṇa brahma karijānai so brāhmaṇa e jogīśvara
saguṇanātha gamya padārtha| ānanda vigrahātmanātha upadeṣṭā upāsya
rūpa atyāśramī guru avadhūta joga sādhana mumukṣu adhikārī bandha
mokṣa rahita koika anirvacanīya mokṣa mokṣa aiso ā grantha mai nirūpaṇa
hai so jo koī paḍhe paḍhāvai jāko ananta acintya phala hai|


kṛpālu tāsauṁ mahājoga vidyā pragaṭa karibe ko tina ke ese śrī nātha

gorakṣapaddhati prathamaśataka

गोरक्षपद्धति
प्रथमशतक
gorakṣapaddhati
prathamaśataka

श्रीगुरुं परमानन्दं वन्दे स्वानन्दविग्रहम्।
यस्य संनिध्यमात्रेण चिदानन्दायते तनुः॥ १॥
śrīguruṁ paramānandaṁ vande svānandavigraham |
yasya saṁnidhyamātreṇa cidānandāyate tanuḥ || 1 ||

नमस्कृत्य गुरुं भक्त्या गोरक्षो ज्ञानमुत्तमम्।
अभीष्टं योगिनां ब्रूते परमानन्दकारकम्॥ २॥
namaskṛtya guruṁ bhaktyā gorakṣo jñānamuttamam |
abhīṣṭaṁ yogināṁ brūte paramānandakārakam || 2 ||

गोरक्षसंहितां वक्ति योगिनां हितकाम्यया।
ध्रुवं यस्यावबोधेन जायते परमं पदम्॥ ३॥
gorakṣasaṁhitāṁ vakti yogināṁ hitakāmyayā |
dhruvaṁ yasyāvabodhena jāyate paramaṁ padam || 3 ||

एतद् विमुक्तिसोपानमेतत् कालस्य वञ्चनम्।
यद् व्यावृत्तं मनो भोगादासक्तं परमात्मनि॥ ४॥
etad vimuktisopānametat kālasya vañcanam |
yad vyāvṛttaṁ mano bhogādāsaktaṁ paramātmani || 4 ||

द्विजसेवितशाखस्य श्रुतिकल्पतरोः फलम्।
शमनं भवतापस्य योगं भजत सत्तमाः॥ ५॥
dvijasevitaśākhasya śrutikalpataroḥ phalam |
śamanaṁ bhavatāpasya yogaṁ bhajata sattamāḥ || 5 ||

आसनं प्राणसंरोधः प्रत्याहारश्च धारणा।
ध्यानं समाधिर् एतानि योगाङ्गानि वदन्ति षट्॥ ६॥
āsanaṁ prāṇasaṁrodhaḥ pratyāhāraśca dhāraṇā |
dhyānaṁ samādhir etāni yogāṅgāni vadanti ṣaṭ || 6 ||


आसनानि च तावन्तो यावन्तो जीवजान्तवः।
एतेषामखिलान् भेदान् विजानाति महेश्वरः॥ ७॥
āsanāni ca tāvanto yāvanto jīvajāntavaḥ |
eteṣāmakhilān bhedān vijānāti maheśvaraḥ || 7 ||

चतुराशीतिलक्षाणामेकैकं समुदाहृतम्।
ततः शिवेन पीठानां षोडेशानं शतं कृतम्॥ ८॥
caturāśītilakṣāṇāmekaiekaṁ samudāhṛtam |
tataḥ śivena pīṭhānāṁ ṣoḍeśānaṁ śataṁ kṛtam || 8 ||

आसनेभ्यः समस्तेभ्यो द्वयमेतदुदाहृतम्।
एकं सिद्धासनं प्रोक्तं द्वितीयं कमलासनम्॥ ९॥
āsanebhyaḥ samastebhyo dvayametadudāhṛtam |
ekaṁ siddhāsanaṁ proktaṁ dvitīyaṁ kamalāsanam || 9 ||

योनिस्थानकमङ्घ्रिमूलघटितं कृत्वा दृढं विन्यसेन्
मेढ्रे पादमथैकमेव हृदये कृत्वा हनुं सुस्थिरम्।
स्थाणुः संयमितेन्द्रियो चलदृशा पश्येद् भ्रुवोरन्तरम्
ह्येतन्मोक्षकवाटभेदजनकं सिद्धासनं प्रोच्यते॥ १०॥
yonisthānakamaṅghrimūlaghaṭitaṁ kṛtvā dṛḍhaṁ vinyasen
meḍhre pādamathaikameva hṛdaye kṛtvā hanuṁ susthiram |
sthāṇuḥ saṁyamitendriyo caladṛśā paśyed bhruvorantaram
hyetanmokṣakavāṭabhedajanakaṁ siddhāsanaṁ procyate || 10 ||

वामोरूपरि दक्षिणं चे चरणं संस्थाप्य वामं तथा
दक्षोरूपरि पश्चिमेनविधिना धृत्वा कराभ्यां दृढम्।
अङ्गुष्ठौ हृदये निधाय चिबुकं नासाग्रमालोकयेद्
एतद् व्याधिविकारनाशनकरं पद्मासनं प्रोच्यते॥ ११॥
vāmorūpari dakṣiṇaṁ ce caraṇaṁ saṁsthāpya vāmaṁ tathā
dakṣorūpari paścimenavidhinā dhṛtvā karābhyāṁ dṛḍham |
aṅguṣṭhau hṛdaye nidhāya cibukaṁ nāsāgramālokayed
etad vyādhivikāranāśanakaraṁ padmāsanaṁ procyate || 11 ||

षट्चक्रं षोडशाधारं द्विलक्ष्य् व्योमपञ्चकम्।
स्वदेहे ये न जानन्ति कथं सिद्ध्यन्ति योगिनः॥ १२॥
ṣaṭcakraṁ ṣoḍaśādhāraṁ dvilakṣy vyomapañcakam |
svadehe ye na jānanti kathaṁ siddhyanti yoginaḥ || 12 ||

एकस्तम्भं नवद्वारं गृहं पञ्चाधिदैवतम्।
स्वदेहे ये न जानन्ति कथं सिद्ध्यन्ति योगिनः॥ १३॥
ekastambhaṁ navadvāraṁ gṛhaṁ pañcādhidaivatam |
svadehe ye na jānanti kathaṁ siddhyanti yoginaḥ || 13 ||

चतुर्दलं स्यादाधारः स्वाधिष्ठानं च षट्दलम्।
नाभौ दशदलं पद्मं सूर्यसङ्ख्यदलं हृदि॥ १४॥
caturdalaṁ syādādhāraḥ svādhiṣṭhānaṁ ca ṣaṭdalam |
nābhau daśadalaṁ padmaṁ sūryasaṅkhyadalaṁ hṛdi || 14 ||

कण्ठे स्यात् षोडशदलं भ्रूमध्ये द्विदलं तथा।
सहस्रदलम् आख्यातं ब्रह्मरन्ध्रे महापथे॥ १५॥
kaṇṭhe syāt ṣoḍaśadalaṁ bhrūmadhye dvidalaṁ tathā |
sahasradalam ākhyātaṁ brahmarandhre mahāpathe || 15 ||

आधारः प्रथमं चक्रं स्वाधिष्ठानं द्वितीयकम्।
योनिस्थानं द्वयोर्मध्ये कामरूपं निगद्यते॥ १६॥
ādhāraḥ prathamaṁ cakraṁ svādhiṣṭhānaṁ dvitīyakam |
yonisthānaṁ dvayormadhye kāmarūpaṁ nigadyate || 16 ||

आधाराख्यं गुदस्थानं पङ्कजं च चतुर्दलम्।
तन्मध्ये प्रोच्यते योनिः कामाक्षा सिद्धवन्दिता॥ १७॥
ādhārākhyaṁ gudasthānaṁ paṅkajaṁ ca caturdalam |
tanmadhye procyate yoniḥ kāmākṣā siddhavanditā || 17 ||

योनिमध्ये महालिङ्गं पश्चिमाभिमुखस्थितम्।
मस्तके मणिवद् बिम्बं यो जानाति स योगवित्॥ १८॥
yonimadhye mahāliṅgaṁ paścimābhimukhasthitam |
mastake maṇivad bimbaṁ yo jānāti sa yogavit || 18 ||

तप्तचामीकराभासं तडिल्लेखेव विस्फुरत्।
त्रिकोणं तत्पुरं वह्नरधो मेढ्रात्प्रतिष्ठितम्॥ १९॥
taptacāmīkarābhāsaṁ taḍillekheva visphurat |
trikoṇaṁ tatpuraṁ vahnaradho meḍhrātpratiṣṭhitam || 19 ||

यत् समाधौ परं ज्योतिरनन्तं विश्वतोमुखम्।
तस्मिन् दृष्टे महायोगे यातायातन्न विन्दते॥ २०॥
yat samādhau paraṁ jyotiranantaṁ viśvatomukham |
tasmin dṛṣṭe mahāyoge yātāyātanna vindate || 20 ||

स्वशब्देन भवेत्प्राणः स्वाधिष्ठानं तदाश्रयः।
स्वाधिष्ठानात्पदादस्मान्मेढ्रमेवाभिधीयते॥ २१॥
svaśabdena bhavetprāṇaḥ svādhiṣṭhānaṁ tadāśrayaḥ |
svādhiṣṭhānātpadādasmānmeḍhramevābhidhīyate || 21 ||

तन्तुना मणिवत्प्रोतो यत्र कन्दः सुषुम्णया।
तन्नाभिमण्डलं चक्रं प्रोच्यते मणिपूरकम्॥ २२॥
tantunā maṇivatproto yatra kandaḥ suṣumṇayā |
tannābhimaṇḍalaṁ cakraṁ procyate maṇipūrakam || 22 ||

द्वादशारे महाचक्रे पुण्यपापविवर्जिते।
तावज् जीवो भ्रमत्य् एव यावत् तत्त्वं न विन्दति॥ २३॥
dvādaśāre mahācakre puṇyapāpavivarjite |
tāvaj jīvo bhramaty eva yāvat tattvaṁ na vindati || 23 ||

ऊर्ध्वं मेढ्रादधोनाभेः कन्दो योनिः खगाण्डवत्।
तत्र नाड्यः समुत्पन्नाः सहस्राणां द्विसप्ततिः॥ २४॥
ūrdhvaṁ meḍhrādadhonābheḥ kando yoniḥ khagāṇḍavat |
tatra nāḍyaḥ samutpannāḥ sahasrāṇāṁ dvisaptatiḥ || 24 ||

तेषु नाडिसहस्रेषु द्विसप्ततिरुदाहृताः।
प्रधानः प्राणवाहिन्यो भूयस्तासु दशस्मृताः॥ २५॥
teṣu nāḍisahasreṣu dvisaptatirudāhṛtāḥ |
pradhānaḥ prāṇavāhinyo bhūyastāsu daśasmṛtāḥ || 25 ||

इडा च पिङ्गला चैव सुषुम्णा च तृतीयका।
गान्धारी हस्तिजिह्वा च पूषा चैव यशस्विनी॥ २६॥
iḍā ca piṅgalā caiva suṣumṇā ca tṛtīyakā |
gāndhārī hastijihvā ca pūṣā caiva yaśasvinī || 26 ||

अलम्बुषा कुहूश्चैव शङ्खिनी दशमी स्मृता।
एतन्नाडिमयं चक्रं ज्ञातव्यं योगिभिः सदा॥ २७॥
alambuṣā kuhūścaiva śaṅkhinī daśamī smṛtā |
etannāḍimayaṁ cakraṁ jñātavyaṁ yogibhiḥ sadā || 27 ||

इडा वामे स्थिता भागे पिङ्गला दक्षिणे स्थिता।
सुषुम्णा मध्यदेशे तु गान्धारी वामचक्षुषि॥ २८॥
iḍā vāme sthitā bhāge piṅgalā dakṣiṇe sthitā |
suṣumṇā madhyadeśe tu gāndhārī vāmacakṣuṣi || 28 ||

दक्षिणे हस्तिजिह्वा च पूषा कर्णे च दक्षिणे।
यशस्विनी वामकर्णे ह्यानने चाप्यलम्बुषा॥ २९॥
dakṣiṇe hastijihvā ca pūṣā karṇe ca dakṣiṇe |
yaśasvinī vāmakarṇe hyānane cāpyalambuṣā || 29 ||

कुहूश् च लिङ्गदेशे तु मूलस्थाने च शङ्खिनी।
एवं द्वारं समाश्रित्य तिष्ठन्ति दशनाडयः॥ ३०॥
kuhūś ca liṅgadeśe tu mūlasthāne ca śaṅkhinī |
evaṁ dvāraṁ samāśritya tiṣṭhanti daśanāḍayaḥ || 30 ||

इडापिङ्गलासुषुम्णाः प्राणमार्गे समाश्रिताः।
सततं प्राणवाहिन्यः सोमसूर्याग्निदेवताः॥ ३१॥
iḍāpiṅgalāsuṣumṇāḥ prāṇamārge samāśritāḥ |
satataṁ prāṇavāhinyaḥ somasūryāgnidevatāḥ || 31 ||

प्राणोपानः समानश्चोदानोव्यानौ च वायवः।
नागः कूर्मोथ कृकलो देवदत्तो धनञ्जयः॥ ३२॥
prāṇopānaḥ samānaścodānovyānau ca vāyavaḥ |
nāgaḥ kūrmotha kṛkalo devadatto dhanañjayaḥ || 32 ||

हृदि प्राणो वसेन्नित्यंअपानो गुदमण्डले।
समानो नाभिदेशे तु उदानः कण्ठमध्यगः॥ ३३॥
hṛdi prāṇo vasennityaṁapāno gudamaṇḍale |
samāno nābhideśe tu udānaḥ kaṇṭhamadhyagaḥ || 33 ||

व्यनो व्यापी शरीरेषु प्रद्धानाः पञ्च वयवः।
प्राणाद्याः पञ्चविख्याता नागाद्याः पन्च वयवः॥ ३४॥
vyano vyāpī śarīreṣu praddhānāḥ pañca vayavaḥ |
prāṇādyāḥ pañcavikhyātā nāgādyāḥ panca vayavaḥ || 34 ||

उद्गारे नाग आख्यातः कूर्म उन्मीलने स्मृतः।
कृकरः क्षुतकृज् ज्ञेयो देवदत्तो विजृम्भणे॥ ३५॥
udgāre nāga ākhyātaḥ kūrma unmīlane smṛtaḥ |
kṛkaraḥ kṣutakṛj jñeyo devadatto vijṛmbhaṇe || 35 ||

न जहाति मृतं चापि सर्वव्यापि धनञ्जयः।
एते सर्वासु नाडीषु भ्रमन्ते जीवरूपिणः॥ ३६॥
na jahāti mṛtaṁ cāpi sarvavyāpi dhanañjayaḥ |
ete sarvāsu nāḍīṣu bhramante jīvarūpiṇaḥ || 36 ||

आक्षिप्तो भुजदण्डेन यथोच्चलति कन्दुकः।
प्राणापानसमाक्षिप्तस्तथा जीवो न तिष्ठति॥ ३७॥
ākṣipto bhujadaṇḍena yathoccalati kandukaḥ |
prāṇāpānasamākṣiptastathā jīvo na tiṣṭhati || 37 ||

प्राणापानवशो जीवो ह्य् अधश् चोर्ध्वं च धावति।
वामदक्षिणमार्गेण चञ्चलत्वान्न दृश्यते॥ ३८॥
prāṇāpānavaśo jīvo hy adhaś cordhvaṁ ca dhāvati |
vāmadakṣiṇamārgeṇa cañcalatvānna dṛśyate || 38 ||

रज्जुबद्धो यथा श्येनो गतोऽप्याकृष्यते पुनः।
गुणबद्धस्तथा जीवः प्राणापानेन कृष्यते॥ ३९॥
rajjubaddho yathā śyeno gato'pyākṛṣyate punaḥ |
guṇabaddhastathā jīvaḥ prāṇāpānena kṛṣyate || 39 ||

अपानः कर्षति प्राणः प्राणोपानं च कर्षति।
ऊर्ध्वाधः संस्थितावेतौ संयोजयति योगवित्॥ ४०॥
apānaḥ karṣati prāṇaḥ prāṇopānaṁ ca karṣati |
ūrdhvādhaḥ saṁsthitāvetau saṁyojayati yogavit || 40 ||

हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत्पुनः।
हंसहंसेत्यमुं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा॥ ४१॥
hakāreṇa bahiryāti sakāreṇa viśetpunaḥ |
haṁsahaṁsetyamuṁ mantraṁ jīvo japati sarvadā || 41 ||

षट्शतानि त्वहोरात्रे सहस्राण्येकविंशतिः।
एतत्सङ्ख्यान्वितं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा॥ ४२॥
ṣaṭśatāni tvahorātre sahasrāṇyekaviṁśatiḥ |
etatsaṅkhyānvitaṁ mantraṁ jīvo japati sarvadā || 42 ||

अजपा नाम गायत्री योगिनां मोक्षदायिनी।
अस्याः सङ्कल्पमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ ४३॥
ajapā nāma gāyatrī yogināṁ mokṣadāyinī |
asyāḥ saṅkalpamātreṇa sarvapāpaiḥ pramucyate || 43 ||

अनया सदृशी विद्या अनया सदृशो जपः।
अनया सदृशं ज्ञानं न भूतं न भविष्यति॥ ४४॥
anayā sadṛśī vidyā anayā sadṛśo japaḥ |
anayā sadṛśaṁ jñānaṁ na bhūtaṁ na bhaviṣyati || 44 ||

कुन्दलिन्याः समुद्भूता गायत्री प्राणधारिणी।
प्राणविद्या महाविद्या यस्तां वेत्ति स योगवित्॥ ४५॥
kundalinyāḥ samudbhūtā gāyatrī prāṇadhāriṇī |
prāṇavidyā mahāvidyā yastāṁ vetti sa yogavit || 45 ||

कन्दोर्ध्वे कुण्डली शक्तिरष्टधा कुण्डलाकृति।
ब्रह्मद्वारमुखं नित्यं मुखेनाच्छाद्य तिष्ठति॥ ४६॥
kandordhve kuṇḍalī śaktiraṣṭadhā kuṇḍalākṛti |
brahmadvāramukhaṁ nityaṁ mukhenācchādya tiṣṭhati || 46 ||

येन द्वारेण गन्तव्यं ब्रह्मस्थानमनामयम्।
मुखेनाच्छाद्य तद्द्वारं प्रसुप्ता परमेश्वरी॥ ४७॥
yena dvāreṇa gantavyaṁ brahmasthānamanāmayam |
mukhenācchādya taddvāraṁ prasuptā parameśvarī || 47 ||

प्रबुद्धा वह्नियोगेन मनसा मारुता सह।
सूचीव गुणमादाय व्रजत्यूर्ध्वं सुषुम्णया॥ ४८॥
prabuddhā vahniyogena manasā mārutā saha |
sūcīva guṇamādāya vrajatyūrdhvaṁ suṣumṇayā || 48 ||

प्रस्फुरद्भुजगाकारा पद्मतन्तुनिभा शुभा।
प्रबुद्धा वह्नियोगेन व्रजत्यूर्ध्वं सुषुम्णया॥ ४९॥
prasphuradbhujagākārā padmatantunibhā śubhā |
prabuddhā vahniyogena vrajatyūrdhvaṁ suṣumṇayā || 49 ||

उद्घटयेत् कपातं तु यथा कुञ्चिकया हठात्।
कुण्डलिन्या तथा योगी मोक्षद्वारं प्रभेदयेत्॥ ५०॥
udghaṭayet kapātaṁ tu yathā kuñcikayā haṭhāt |
kuṇḍalinyā tathā yogī mokṣadvāraṁ prabhedayet || 50 ||

कृत्वा सम्पुटितौ करौ दृढतरं बद्ध्वा तु पद्मासनं
गाढं वक्षसि सन्निधाय चिबुकं ध्यानं च तच्चेतसि।
वारम्वारमपानमूर्ध्वमनिलं प्रोच्चारयेत्पूरितं
मुञ्चन्प्राणमुपैति बोधमतुलं शक्तिप्रभावादतः॥ ५१॥
kṛtvā sampuṭitau karau dṛḍhataraṁ baddhvā tu padmāsanaṁ
gāḍhaṁ vakṣasi sannidhāya cibukaṁ dhyānaṁ ca taccetasi |
vāramvāramapānamūrdhvamanilaṁ proccārayetpūritaṁ
muñcanprāṇamupaiti bodhamatulaṁ śaktiprabhāvādataḥ || 51 ||

अङ्गानां मर्दनं कृत्व श्रमसञ्जातवारिणा।
कट्वम्ललवणत्यागी क्षीरभोजनमाचरेत्॥ ५२॥
aṅgānāṁ mardanaṁ kṛtva śramasañjātavāriṇā |
kaṭvamlalavaṇatyāgī kṣīrabhojanamācaret || 52 ||

ब्रह्मचारी मिताहारी त्यागी योगपरायणः।
अब्दाद् ऊर्ध्वं भवेत् सिद्धो नात्र कार्या विचारणा॥ ५३॥
brahmacārī mitāhārī tyāgī yogaparāyaṇaḥ |
abdād ūrdhvaṁ bhavet siddho nātra kāryā vicāraṇā || 53 ||

सुस्निग्धं मधुराहारं चतुर्थांशविवर्जितम्।
भुज्यते स्वरसं प्रीत्यै मिताहारी स उच्यते॥ ५४॥
susnigdhaṁ madhurāhāraṁ caturthāṁśavivarjitam |
bhujyate svarasaṁ prītyai mitāhārī sa ucyate || 54 ||

कन्दोर्ध्वं कुण्डलीनी शक्ति शुभमोक्षप्रदायिनी।
बन्धनाय च मूढानां यस्तां वेत्ति स योगवित्॥ ५५॥
kandordhvaṁ kuṇḍalīnī śakti śubhamokṣapradāyinī |
bandhanāya ca mūḍhānāṁ yastāṁ vetti sa yogavit || 55 ||

महामुद्रां नमोमुद्रां उड्डियानं जलन्धरम्।
मूलबन्धनं च यो वेत्ति स योगी मुक्तिभाजनम्॥ ५६॥
mahāmudrāṁ namomudrāṁ uḍḍiyānaṁ jalandharam |
mūlabandhanaṁ ca yo vetti sa yogī muktibhājanam || 56 ||

वक्षोन्यस्तहनुः प्रपीड्य सुचिरं योनिं च वामाङ्घ्रिणा
हस्ताभ्यामवधारयेत् प्रसरितं पादं तथा दक्षिणम्।
आपूर्य श्वसनेन कुक्षियुगलं बद्ध्वा शनैरेचये
देषापातकनाशिनी सुमहती मुद्रा नॄणां कत्यते॥ ५७॥
vakṣonyastahanuḥ prapīḍya suciraṁ yoniṁ ca vāmāṅghriṇā
hastābhyāmavadhārayet prasaritaṁ pādaṁ tathā dakṣiṇam |
āpūrya śvasanena kukṣiyugalaṁ baddhvā śanairecaye
deṣāpātakanāśinī sumahatī mudrā nṝṇāṁ katyate || 57 ||

चन्द्राङ्गेन समभ्यस्य सूर्याङ्गेनाभ्यसेत्पुनः।
यावत्तुल्या भवेत्सङ्ख्या ततो मुद्रां विसर्जयेत्॥ ५८॥
candrāṅgena samabhyasya sūryāṅgenābhyasetpunaḥ |
yāvattulyā bhavetsaṅkhyā tato mudrāṁ visarjayet || 58 ||

नहि पथ्यमपथ्यं वा रसाः सर्वेऽपि नीरसाः।
अपि मुक्तं विषं घोरं पीयूषमिव जीर्यते॥ ५९॥
nahi pathyamapathyaṁ vā rasāḥ sarve'pi nīrasāḥ |
api muktaṁ viṣaṁ ghoraṁ pīyūṣamiva jīryate || 59 ||

क्षयकुष्ठगुदावर्तगुल्माजीर्णपुरोगमाः।
तस्य दोषाः क्षयं यान्ति महामुद्रां तु योभ्यसेत्॥ ६०॥
kṣayakuṣṭhagudāvartagulmājīrṇapurogamāḥ |
tasya doṣāḥ kṣayaṁ yānti mahāmudrāṁ tu yobhyaset || 60 ||

कथितेयं महामुद्रा महासिद्धिकरा नॄणाम्।
गोपनीया प्रयत्नेन न देया यस्य कस्यचित्॥ ६१॥
kathiteyaṁ mahāmudrā mahāsiddhikarā nṝṇām |
gopanīyā prayatnena na deyā yasya kasyacit || 61 ||

कपालकुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा।
भ्रुवोरन्तर्गता दृष्टिर् मुद्रा भवति खेचरी॥ ६२॥
kapālakuhare jihvā praviṣṭā viparītagā |
bhruvorantargatā dṛṣṭir mudrā bhavati khecarī || 62 ||

न रोगान्मरणं तस्य न निद्रा न क्षुधा तृषा।
न मूर्च्छा तु भवेत्तस्य यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम्॥ ६३॥
na rogānmaraṇaṁ tasya na nidrā na kṣudhā tṛṣā |
na mūrcchā tu bhavettasya yo mudrāṁ vetti khecarīm || 63 ||

पीड्यते न च शिकेन लिप्यते न च कर्मणा।
बाध्यते न स केनापि यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम्॥ ६४॥
pīḍyate na ca śikena lipyate na ca karmaṇā |
bādhyate na sa kenāpi yo mudrāṁ vetti khecarīm || 64 ||

चित्तं चलति नो यस्माज्जिह्वा चरति खेचरी।
तेनेयं खेचरी सिद्धा सर्वसिद्धैर्नमस्कृता॥ ६५॥
cittaṁ calati no yasmājjihvā carati khecarī |
teneyaṁ khecarī siddhā sarvasiddhairnamaskṛtā || 65 ||

बिन्दुमूल शरीरणां शिरास्तत्र प्रतिष्ठिताः।
भावयन्ति शरीराणमापादतलमस्तकम्॥ ६६॥
bindumūla śarīraṇāṁ śirāstatra pratiṣṭhitāḥ |
bhāvayanti śarīrāṇamāpādatalamastakam || 66 ||

खेचर्या मुद्रितं येन विवरं लम्बिकोर्ध्वतः।
न तस्य क्षरते बिन्दुः कामिन्यालिङ्गितस्य च॥ ६७॥
khecaryā mudritaṁ yena vivaraṁ lambikordhvataḥ |
na tasya kṣarate binduḥ kāminyāliṅgitasya ca || 67 ||

यावद् बिन्दुः स्थितो देहे तावन्मृतोर्भयं कुतः।
यावद् बद्धा नभोमुद्रा तावद् बिन्दुर्न गच्छति॥ ६८॥
yāvad binduḥ sthito dehe tāvanmṛtorbhayaṁ kutaḥ |
yāvad baddhā nabhomudrā tāvad bindurna gacchati || 68 ||

चलितोऽपि यदा बिन्दुः सम्प्राप्तश् च हुताशनम्।
व्रजत्यूर्ध्वं हृतः शक्त्या निरुद्धो योनिमुद्रया॥ ६९॥
calito'pi yadā binduḥ samprāptaś ca hutāśanam |
vrajatyūrdhvaṁ hṛtaḥ śaktyā niruddho yonimudrayā || 69 ||

स पुनर्द्विविधो बिन्दुः पण्डुरो लोहितस्तथा।
पाण्डुरः शुक्रमित्याहुर्लोहिताख्यो महाराजः॥ ७०॥
sa punardvividho binduḥ paṇḍuro lohitastathā |
pāṇḍuraḥ śukramityāhurlohitākhyo mahārājaḥ || 70 ||

सिन्दूरद्रवसङ्काशं नाभिस्थाने स्थितं रजः।
शशिस्थाने स्थितो बिन्दुस्तयोरैक्यं सुदुर्लभम्॥ ७१॥
sindūradravasaṅkāśaṁ nābhisthāne sthitaṁ rajaḥ |
śaśisthāne sthito bindustayoraikyaṁ sudurlabham || 71 ||

बिन्दुः शिवो रजः शक्तिर्बिन्दुम् इन्दू रजो रविः।
अनयोः सङ्गमादेव प्राप्यते परमं पदम्॥ ७२॥
binduḥ śivo rajaḥ śaktirbindum indū rajo raviḥ |
anayoḥ saṅgamādeva prāpyate paramaṁ padam || 72 ||

वायुना शक्तिचारेण प्रेरितं तु यदा रजः।
याति बिन्दोः सहैकत्वं भवेद्दिव्यं वपुस्ततः॥ ७३॥
vāyunā śakticāreṇa preritaṁ tu yadā rajaḥ |
yāti bindoḥ sahaikatvaṁ bhaveddivyaṁ vapustataḥ || 73 ||

शुक्रं चन्द्रेण संयुक्तं रजः सूर्येण संयुतम्।
तयोः समरसैकत्वं यो जानाति स योगवित्॥ ७४॥
śukraṁ candreṇa saṁyuktaṁ rajaḥ sūryeṇa saṁyutam |
tayoḥ samarasaikatvaṁ yo jānāti sa yogavit || 74 ||

शोधनं नाडिजालस्य चालनं चन्द्रसूर्ययोः।
रसानां शोषणं चैव महामुद्राभिधीयते॥ ७५॥
śodhanaṁ nāḍijālasya cālanaṁ candrasūryayoḥ |
rasānāṁ śoṣaṇaṁ caiva mahāmudrābhidhīyate || 75 ||

उड्डीनं कुरुते यस्मादविश्रान्तं महाखगः।
उड्डीयानं तदेव स्यान्मृत्युमातङ्गकेशरी॥ ७६॥
uḍḍīnaṁ kurute yasmādaviśrāntaṁ mahākhagaḥ |
uḍḍīyānaṁ tadeva syānmṛtyumātaṅgakeśarī || 76 ||

उदरात्पश्चिमे भागे अधो नाभेर्निगद्यते।
उड्डीयानो ह्यं बन्धस्तत्र बन्धो निगद्यते॥ ७७॥
udarātpaścime bhāge adho nābhernigadyate |
uḍḍīyāno hyaṁ bandhastatra bandho nigadyate || 77 ||

बध्नाति हि सिरोजालं नाधो याति नभोजलम्।
ततो जालन्धरो बन्धो कण्ठदुःखौघनाशनः॥ ७८॥
badhnāti hi sirojālaṁ nādho yāti nabhojalam |
tato jālandharo bandho kaṇṭhaduḥkhaughanāśanaḥ || 78 ||

जालन्धरे कृते बन्धे कण्ठसंकोचलक्षणे।
पीयूषं न पतत्यग्नौ न च वायुः प्रकुप्यति॥ ७९॥
jālandhare kṛte bandhe kaṇṭhasaṁkocalakṣaṇe |
pīyūṣaṁ na patatyagnau na ca vāyuḥ prakupyati || 79 ||

पार्ष्णिभागेनसंपीड्य योनिमाकुञ्चयेद्गुदम्।
अपानमूर्ध्वमाकृष्य मूलबन्धो विधीयते॥ ८०॥
pārṣṇibhāgenasaṁpīḍya yonimākuñcayedgudam |
apānamūrdhvamākṛṣya mūlabandho vidhīyate || 80 ||

अपानप्राणयोरैक्यात् क्षयोमूत्रपुरीषयोः।
युवा भवति वृद्धोऽपि सततं मूलबन्धनात्॥ ८१॥
apānaprāṇayoraikyāt kṣayomūtrapurīṣayoḥ |
yuvā bhavati vṛddho'pi satataṁ mūlabandhanāt || 81 ||

पद्मासनं समारुह्य समकायशिरोधरः।
नासाग्रदृष्टिरेकान्ते जपेदोङ्कारमव्ययम्॥ ८२॥
padmāsanaṁ samāruhya samakāyaśirodharaḥ |
nāsāgradṛṣṭirekānte japedoṅkāramavyayam || 82 ||

भूर्भुवः स्वरिमे लोकाः सोमसूर्याग्निदेवताः।
यस्या मात्रासु तिष्ठन्ति तत्परं ज्योतिरोमिति॥ ८३॥
bhūrbhuvaḥ svarime lokāḥ somasūryāgnidevatāḥ |
yasyā mātrāsu tiṣṭhanti tatparaṁ jyotiromiti || 83 ||

त्रयः कालास्त्रयो वेदास्त्रयो लोकास्त्रयः स्वराः।
त्रयो देवाः स्थिता यत्र तत्परं ज्योतिरोमिति॥ ८४॥
trayaḥ kālāstrayo vedāstrayo lokāstrayaḥ svarāḥ |
trayo devāḥ sthitā yatra tatparaṁ jyotiromiti || 84 ||

क्रिया इच्छा तथा ज्ञानां ब्राह्मी रौद्री च वैष्णवी।
त्रिधा शक्तिः स्थिता यत्र तत्परं ज्योतिरोमिति॥ ८५॥
kriyā icchā tathā jñānāṁ brāhmī raudrī ca vaiṣṇavī |
tridhā śaktiḥ sthitā yatra tatparaṁ jyotiromiti || 85 ||

आकाराश्च उकारश्च मकारो बिन्दुसंज्ञकः।
त्रिधा मात्राः स्थिता यत्र तत् परं ज्योतिरोमिति॥ ८६॥
ākārāśca ukāraśca makāro bindusaṁjñakaḥ |
tridhā mātrāḥ sthitā yatra tat paraṁ jyotiromiti || 86 ||

वचसा तज्जयेद् बीजं वपुषा तत् समभ्यसेत्।
मनसा तत्स्मरेन्नित्यं तत्परं ज्योतिरोमिति॥ ८७॥
vacasā tajjayed bījaṁ vapuṣā tat samabhyaset |
manasā tatsmarennityaṁ tatparaṁ jyotiromiti || 87 ||

शुचिर्वाप्यशुचिर्वापि योजपेत् प्रणवं सदा।
न स लिप्यति पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥ ८८॥
śucirvāpyaśucirvāpi yojapet praṇavaṁ sadā |
na sa lipyati pāpena padmapatramivāmbhasā || 88 ||

चले वाते चलो बिन्दुर्निश्चले निश्चलो भवेत्।
योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्॥ ८९॥
cale vāte calo bindurniścale niścalo bhavet |
yogī sthāṇutvamāpnoti tato vāyuṁ nirodhayet || 89 ||

यावद् वायुः स्थितो देहे तावज्जीवं न मुन्चति।
मरणं तस्य निष्क्रान्तिस्ततो वायुं निरोधयेत्॥ ९०॥
yāvad vāyuḥ sthito dehe tāvajjīvaṁ na muncati |
maraṇaṁ tasya niṣkrāntistato vāyuṁ nirodhayet || 90 ||

यावद् बद्धो मरुद् देहे यावच्चित्तं निरामयम्।
यावद् दृष्टिर्भ्रुवोर्मध्ये तावत्कालभयं कुतः॥ ९१॥
yāvad baddho marud dehe yāvaccittaṁ nirāmayam |
yāvad dṛṣṭirbhruvormadhye tāvatkālabhayaṁ kutaḥ || 91 ||

अतः कालभयाद् ब्रह्मा प्राणायामपरायणः।
योगिनो मुनयश्चैव ततो वायुं निरोधयेत्॥ ९२॥
ataḥ kālabhayād brahmā prāṇāyāmaparāyaṇaḥ |
yogino munayaścaiva tato vāyuṁ nirodhayet || 92 ||

षट्त्रिंशदङ्गुलो हंसः प्रयाणं कुरुते बहिः।
वामदक्षिणमार्गेण ततः प्राणोऽभिधीयते॥ ९३॥
ṣaṭtriṁśadaṅgulo haṁsaḥ prayāṇaṁ kurute bahiḥ |
vāmadakṣiṇamārgeṇa tataḥ prāṇo'bhidhīyate || 93 ||

शुद्धिमेति यदा सर्वं नाडीचक्रं मलाकुलम्।
तदैव जायते योगी प्राणसंग्रहणे क्षमः॥ ९४॥
śuddhimeti yadā sarvaṁ nāḍīcakraṁ malākulam |
tadaiva jāyate yogī prāṇasaṁgrahaṇe kṣamaḥ || 94 ||

बद्धपद्मासनो योगी प्राणं चन्द्रेण पूरयेत्।
धारयित्वा यथाशक्तिभूयः सूर्येण रेचयेत्॥ ९५॥
baddhapadmāsano yogī prāṇaṁ candreṇa pūrayet |
dhārayitvā yathāśaktibhūyaḥ sūryeṇa recayet || 95 ||

अमृतंदधिसङ्काशं गोक्षीरधवलोपमम्।
ध्यात्वा चन्द्रमसो बिम्बं प्राणायामी सुखी भवेत्॥ ९६॥
amṛtaṁdadhisaṅkāśaṁ gokṣīradhavalopamam |
dhyātvā candramaso bimbaṁ prāṇāyāmī sukhī bhavet || 96 ||

दक्षिणे श्वासमाकृष्य पूरयेदुत्तरं शनैः।
कुम्भयित्वा विधानेन पुनश्चन्द्रेण रेचयेत्॥ ९७॥
dakṣiṇe śvāsamākṛṣya pūrayeduttaraṁ śanaiḥ |
kumbhayitvā vidhānena punaścandreṇa recayet || 97 ||

प्रज्वलज्ज्वलनज्वालापुञ्जमादित्यमण्डलम्।
ध्यात्वा नाभिस्थितं योगी प्राणायामे सुखी भवेत्॥ ९८॥
prajvalajjvalanajvālāpuñjamādityamaṇḍalam |
dhyātvā nābhisthitaṁ yogī prāṇāyāme sukhī bhavet || 98 ||

प्राणंश्चेदिडयापिबेत्परिमितं भूयोऽन्यया रेचयेत्
पीत्वा पिङ्गलया समीरणमथो बद्ध्वा त्यजेद् वामया।
सूर्यचन्द्रमसोरनेन विधिना बिम्बद्वयं ध्यायतां
शुद्धा नाडिगणा भवन्ति यमिनां मासत्रयादूर्ध्वतः॥ ९९॥
prāṇaṁścediḍayāpibetparimitaṁ bhūyo'nyayā recayet
pītvā piṅgalayā samīraṇamatho baddhvā tyajed vāmayā |
sūryacandramasoranena vidhinā bimbadvayaṁ dhyāyatāṁ
śuddhā nāḍigaṇā bhavanti yamināṁ māsatrayādūrdhvataḥ || 99 ||

यथेष्टं धारणं वायोरनलस्य प्रदीपनम्।
नादाभिव्यक्तिरारोग्यं जायते नाडिशोधने॥ १००॥
yatheṣṭaṁ dhāraṇaṁ vāyoranalasya pradīpanam |
nādābhivyaktirārogyaṁ jāyate nāḍiśodhane || 100 ||

॥ इति गोरक्षयोगशस्त्रे पूर्व शतकम्॥
|| iti gorakṣayogaśastre pūrva śatakam ||

गोरक्षपद्धति
दूसरा शतक
gorakṣapaddhati
(dūsarā śataka)

प्राणो देहे स्थितो वायुरपानस्य निरोधनात्।
एकश्वसनमात्रेणोद्घाटयेत् गगने गतिम्॥ १॥
prāṇo dehe sthito vāyurapānasya nirodhanāt |
ekaśvasanamātreṇodghāṭayet gagane gatim || 1 ||

रेचकः पूरकश्चैव कुम्भकः प्रणवात्मकः।
प्राणायामो भवेत् त्रेधा मत्रद्वादशसंयुतः॥ २॥
recakaḥ pūrakaścaiva kumbhakaḥ praṇavātmakaḥ |
prāṇāyāmo bhavet tredhā matradvādaśasaṁyutaḥ || 2 ||

मात्राद्वादशसंयुक्तौ दिवाकरनिशाकरौ।
दोषजालमपध्नन्तौ ज्ञातव्यौ योगिभिः सदा॥ ३॥
mātrādvādaśasaṁyuktau divākaraniśākarau |
doṣajālamapadhnantau jñātavyau yogibhiḥ sadā || 3 ||

पूरके द्वादशीकुर्यात्कुम्भके षोडशी भवेत्।
रेचके दश ॐकराः प्राणायामः स उच्यते॥ ४॥
pūrake dvādaśīkuryātkumbhake ṣoḍaśī bhavet |
recake daśa omkarāḥ prāṇāyāmaḥ sa ucyate || 4 ||

प्रथमे द्वादशी मात्रा मध्यमेद्विगुणा मता।
उत्तमे त्रिगुणा प्राणायामस्य निर्णयः॥ ५॥
prathame dvādaśī mātrā madhyamedviguṇā matā |
uttame triguṇā prāṇāyāmasya nirṇayaḥ || 5 ||

अधमे चोद्यते घर्मः कम्पो भवति मधयमे।
उत्तिष्ठत्युत्तमे योगि ततो वायुं निरोधयेत्॥ ६॥
adhame codyate gharmaḥ kampo bhavati madhayame |
uttiṣṭhatyuttame yogi tato vāyuṁ nirodhayet || 6 ||

बद्धपद्नासनो योगी नमस्कृत्य गुरुं शिवम्।
भ्रूमध्ये दृष्टिरेकाकी प्राणायामं समभ्य्सेत्॥ ७॥
baddhapadnāsano yogī namaskṛtya guruṁ śivam |
bhrūmadhye dṛṣṭirekākī prāṇāyāmaṁ samabhyset || 7 ||

ऊर्ध्वमाकृष्य चापानवायुं प्राणे नियोजयेत्।
उर्ध्वमानीयते शक्त्या सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ ८॥
ūrdhvamākṛṣya cāpānavāyuṁ prāṇe niyojayet |
urdhvamānīyate śaktyā sarvapāpaiḥ pramucyate || 8 ||

द्वाराणां नवकं निरुद्ध्य मरुत पीत्वा दृढं धारितं
नीत्वाकाशमपानवह्निसहितं शक्त्या समुच्चालितम्।
आत्मस्थानयुतस्त्वनेन विधिवद् विन्यस्यमूर्घ्निं ध्रुवं
यावत्तिष्ठति तावदेव महतां संघेन संस्तूयते॥ ९॥
dvārāṇāṁ navakaṁ niruddhya maruta pītvā dṛḍhaṁ dhāritaṁ
nītvākāśamapānavahnisahitaṁ śaktyā samuccālitam |
ātmasthānayutastvanena vidhivad vinyasyamūrghniṁ dhruvaṁ
yāvattiṣṭhati tāvadeva mahatāṁ saṁghena saṁstūyate || 9 ||

प्राणायामो भवत्येवं पातकेन्धनपावकः।
भवोदधिमहासेतुः प्रोच्यते योगिभिः सदा॥ १०॥
prāṇāyāmo bhavatyevaṁ pātakendhanapāvakaḥ |
bhavodadhimahāsetuḥ procyate yogibhiḥ sadā || 10 ||

आसनेन रुजो हन्ति प्राणायामेन पातकम्।
विकारं मानसं योगी प्रत्याहारेण मुण्चति॥ ११॥
āsanena rujo hanti prāṇāyāmena pātakam |
vikāraṁ mānasaṁ yogī pratyāhāreṇa muṇcati || 11 ||

धारणाभिमतो धैर्यं ध्यानाच्चैतन्यमद्भुतम्।
समाधौ मोक्षमानोति त्यक्त्व कर्म शुभाशुभम्॥ १२॥
dhāraṇābhimato dhairyaṁ dhyānāccaitanyamadbhutam |
samādhau mokṣamānoti tyaktva karma śubhāśubham || 12 ||

प्राणायामद्विषटकेन प्रत्याहारः प्रकीर्तितः।
प्रत्याहारद्विषट्केन ज्ञायते धारणा शुभा॥ १३॥
prāṇāyāmadviṣaṭakena pratyāhāraḥ prakīrtitaḥ |
pratyāhāradviṣaṭkena jñāyate dhāraṇā śubhā || 13 ||

धारणा द्वादश प्रोक्ता ध्यानाद् धानविशारदैः।
ध्यानद्वादशकेनैव समाधिरभिधीयते॥ १४॥
dhāraṇā dvādaśa proktā dhyānād dhānaviśāradaiḥ |
dhyānadvādaśakenaiva samādhirabhidhīyate || 14 ||

यत्समाधौ परं ज्योतिरनन्तं विश्वमोमुखम्‌।
तस्मिन्‌ दृष्टे क्रिया कर्म यातायातं न विद्यते॥ १५॥
yatsamādhau paraṁ jyotiranantaṁ viśvamomukham |
tasmin dṛṣṭe kriyā karma yātāyātaṁ na vidyate || 15 ||

सम्बद्धासनमेढ्रमंध्रियुगलं कर्णाक्षिनासापुटा
द्द्वाराण्यगुलिभिर्नियम्य पवनं वक्त्रेण सम्पूरितम्‌।
ध्यात्वा वक्षसि वह्न्यपानसहितं मूर्ध्नि स्थितं धारये
देवं याति विशेषतत्त्वसमतां योगीश्वरस्तन्मयः॥ १६॥
sambaddhāsanameḍhramaṁdhriyugalaṁ karṇākṣināsāpuṭā
ddvārāṇyagulibhirniyamya pavanaṁ vaktreṇa sampūritam |
dhyātvā vakṣasi vahnyapānasahitaṁ mūrdhni sthitaṁ dhāraye
devaṁ yāti viśeṣatattvasamatāṁ yogīśvarastanmayaḥ || 16 ||

गगनं पवने प्राप्त ध्वनिरुत्पद्यते महान्‌।
घण्टादीनां प्रवाद्यानां तदा सिद्धिरदूरतः॥१७॥
gaganaṁ pavane prāpta dhvanirutpadyate mahān |
ghaṇṭādīnāṁ pravādyānāṁ tadā siddhiradūrataḥ ||17 ||

प्राणायामेन युक्तेन सर्वरोक्षयो भवेत्‌।
आयुक्ताभ्यासयोगेन सर्वरोगस्य संभवह्॥ १८ ॥
prāṇāyāmena yuktena sarvarokṣayo bhavet |
āyuktābhyāsayogena sarvarogasya saṁbhavah || 18 ||

हिक्का कासस्तथा श्वासः शिरः कर्णाक्षिवेदनाः।
भवन्ति विविधा रोगा पवनस्य व्यतिक्रमात्‌॥ १९॥
hikkā kāsastathā śvāsaḥ śiraḥ karṇākṣivedanāḥ |
bhavanti vividhā rogā pavanasya vyatikramāt || 19 ||

यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः-शनैः।
अन्यथा हन्ति योक्तारं तथा वायुरसेवितः॥ २०॥
yathā siṁho gajo vyāghro bhavedvaśyaḥ śanaiḥ-śanaiḥ |
anyathā hanti yoktāraṁ tathā vāyurasevitaḥ || 20 ||

युक्तं युक्तं त्यजेद्वायुं युक्तं युक्तं च पूरयेत्‌।
युक्तं युक्तं च बनीयादेवं सिद्धिरदूरतः॥ २१॥
yuktaṁ yuktaṁ tyajedvāyuṁ yuktaṁ yuktaṁ ca pūrayet |
yuktaṁ yuktaṁ ca banīyādevaṁ siddhiradūrataḥ || 21 ||

चरतां चक्षुरादीनां विषयेषु यथाक्रमम्‌।
यत्प्रत्याहरणं तेषां प्रत्याहारः स उच्यते॥ २२॥
caratāṁ cakṣurādīnāṁ viṣayeṣu yathākramam |
yatpratyāharaṇaṁ teṣāṁ pratyāhāraḥ sa ucyate || 22 ||

यथा तृतीयकालस्थो रविः प्रत्याहरेत्प्रभाम्‌।
तृतौयाङ्गस्थितो योगी विकारं मानसं तथा॥ २३॥
yathā tṛtīyakālastho raviḥ pratyāharetprabhām |
tṛtauyāṅgasthito yogī vikāraṁ mānasaṁ tathā || 23 ||

अङ्गमध्ये यथाङ्गन्‌ कूर्मः संकोचयेद्‌ ध्रुवम्‌।
योगी प्रत्याहरेदेवमिन्द्रियाणि तथात्मनि॥ २४॥
aṅgamadhye yathāṅgan kūrmaḥ saṁkocayed dhruvam |
yogī pratyāharedevamindriyāṇi tathātmani || 24 ||

यं यं शृणोति कर्णाभ्यामप्रियं प्रियमेव वा।
तं तमात्मेति विज्ञाय प्रत्याहरति योगवित्‌॥ २५॥
yaṁ yaṁ śṛṇoti karṇābhyāmapriyaṁ priyameva vā |
taṁ tamātmeti vijñāya pratyāharati yogavit || 25 ||

अगन्धमथवा गन्धं यं यं जिघ्रति नासिका।
तं तमात्मेति विज्ञाय प्रत्याहरति योगवित॥ २६॥
agandhamathavā gandhaṁ yaṁ yaṁ jighrati nāsikā |
taṁ tamātmeti vijñāya pratyāharati yogavita || 26 ||

अमेध्यमथवा मेध्यं यं यं पश्यति चक्षुषा।
तं तमात्मेति विज्ञाय प्रत्याहरति योगवित॥ २७॥
amedhyamathavā medhyaṁ yaṁ yaṁ paśyati cakṣuṣā |
taṁ tamātmeti vijñāya pratyāharati yogavita || 27 ||

तं तमात्मेति विज्ञाय प्रत्याहरति योगवित॥ २८॥
taṁ tamātmeti vijñāya pratyāharati yogavita || 28 ||

लावण्यमलावण्यं वा यं यं रसति जिह्वया।
तं तमात्मेति विज्ञाय प्रत्याहरति योगवित्‌॥ २९॥
lāvaṇyamalāvaṇyaṁ vā yaṁ yaṁ rasati jihvayā |
taṁ tamātmeti vijñāya pratyāharati yogavit || 29 ||

चन्द्रामृत्मयीं धारां प्रत्याहरति भास्करः।
यत्प्रत्यहरणं तस्याः प्रत्याहारः स उच्यते॥ ३०॥
candrāmṛtmayīṁ dhārāṁ pratyāharati bhāskaraḥ |
yatpratyaharaṇaṁ tasyāḥ pratyāhāraḥ sa ucyate || 30 ||

एकस्त्री भुज्यते द्वाभ्यामागता चन्द्रमण्डलात्।
तृतीयो यः पुनस्ताभ्यां स भवेदजरामरः॥ ३१॥
ekastrī bhujyate dvābhyāmāgatā candramaṇḍalāt |
tṛtīyo yaḥ punastābhyāṁ sa bhavedajarāmaraḥ || 31 ||

नाभिदेशे वसत्येको भास्करो दहनात्मनः।
अमृतात्मा स्थितो नित्यं तालुमूले च चन्द्रमाः॥ ३२॥
nābhideśe vasatyeko bhāskaro dahanātmanaḥ |
amṛtātmā sthito nityaṁ tālumūle ca candramāḥ || 32 ||

वर्षत्यधोमुखश्चन्द्रो ग्रस्त्यूर्ध्वमुखो रविः।
ज्ञातव्या करणी तत्र यथा पीयूषमाप्यते॥ ३३॥
varṣatyadhomukhaścandro grastyūrdhvamukho raviḥ |
jñātavyā karaṇī tatra yathā pīyūṣamāpyate || 33 ||

ऊर्ध्व नाभिरधस्तालुरूर्ध्वं भानुरधः शशी।
करणि विपरीताख्या गुरुवाक्येन लभ्यते॥ ३४॥
ūrdhva nābhiradhastālurūrdhvaṁ bhānuradhaḥ śaśī |
karaṇi viparītākhyā guruvākyena labhyate || 34 ||

त्रिधा बद्धो वृषो यत्र रोरवीति महास्वनः।
अनाहतं च तच्चक्रं हृदये योगिनो विदुः॥ ३५॥
tridhā baddho vṛṣo yatra roravīti mahāsvanaḥ |
anāhataṁ ca taccakraṁ hṛdaye yogino viduḥ || 35 ||

अनाहतमतिक्रम्य चाक्रम्य मणिपूरकम्।
प्राप्ते प्राणे महापद्मं योगी स्वयमृतायते॥ ३६॥
anāhatamatikramya cākramya maṇipūrakam |
prāpte prāṇe mahāpadmaṁ yogī svayamṛtāyate || 36 ||

ऊर्धवं षोडशपत्रपद्मगलितं प्राणाद्वाप्तं हठा
दूर्ध्वस्यो रसनां निधाय विधिवच्छक्तिं परां चिन्तयेत्।
तत्कल्लोलकलाजलं सुविमलं जिह्वाकुलम् यः पिबे
न्निर्दोषः समृणालकोपुर्योगी चिरं जीवति॥ ३७॥
ūrdhavaṁ ṣoḍaśapatrapadmagalitaṁ prāṇādvāptaṁ haṭhā
dūrdhvasyo rasanāṁ nidhāya vidhivacchaktiṁ parāṁ cintayet |
tatkallolakalājalaṁ suvimalaṁ jihvākulam yaḥ pibe
nnirdoṣaḥ samṛṇālakopuryogī ciraṁ jīvati || 37 ||

काकचञ्चुवदास्येन शीतलं सलिलं पिबेत्।
प्राणापानविधानेन योगी भवति निर्जरः॥ ३८॥
kākacañcuvadāsyena śītalaṁ salilaṁ pibet |
prāṇāpānavidhānena yogī bhavati nirjaraḥ || 38 ||

रसनातालुमूलेन यः प्राणमनिलं पिबेत्।
अब्दार्द्धेन भवेतस्य सर्वरोगस्य संक्षयः॥ ३९॥
rasanātālumūlena yaḥ prāṇamanilaṁ pibet |
abdārddhena bhavetasya sarvarogasya saṁkṣayaḥ || 39 ||

विशुद्धे पञ्चमे चक्रे ध्यात्वासौ सकलामृतम्।
उन्मार्गेण हृतं याति वञ्चयित्वा मुखं रवेः॥ ४०॥
viśuddhe pañcame cakre dhyātvāsau sakalāmṛtam |
unmārgeṇa hṛtaṁ yāti vañcayitvā mukhaṁ raveḥ || 40 ||

विशब्देन स्मृतो हंसः नैर्मल्यं शुद्धिरुच्यते।
अतः कण्ठे विशुद्धाख्यं चक्रं चक्रविदो विदुः॥ ४१॥
viśabdena smṛto haṁsaḥ nairmalyaṁ śuddhirucyate |
ataḥ kaṇṭhe viśuddhākhyaṁ cakraṁ cakravido viduḥ || 41 ||

अमृतं कन्दरे कृत्वा नासान्तसुषिरे क्रमात्।
स्वयमुच्चालितं याति वर्जयित्वा मुखं रवेः॥ ४२॥
amṛtaṁ kandare kṛtvā nāsāntasuṣire kramāt |
svayamuccālitaṁ yāti varjayitvā mukhaṁ raveḥ || 42 ||

बद्धं सोमकलाजलं सुविमलं कण्ठस्थलादूर्ध्वतो
नासान्ते सुषिरे नयेच्च गगनद्वारान्ततः सर्वतः।
ऊर्ध्वास्यो भुवि सन्निपत्य निरामुत्तानपादः पिबे
देवं यः कुरुते जितेन्द्रियगणो नैवास्ति तस्य क्षयः॥ ४३॥
baddhaṁ somakalājalaṁ suvimalaṁ kaṇṭhasthalādūrdhvato
nāsānte suṣire nayecca gaganadvārāntataḥ sarvataḥ |
ūrdhvāsyo bhuvi sannipatya nirāmuttānapādaḥ pibe
devaṁ yaḥ kurute jitendriyagaṇo naivāsti tasya kṣayaḥ || 43 ||

उर्ध्वं जिह्वां स्थिरीकृत्य सोमपनां करोति यः।
मासार्द्धन न सन्देहो मृत्युं जयति योगवित्॥ ४४॥
urdhvaṁ jihvāṁ sthirīkṛtya somapanāṁ karoti yaḥ |
māsārddhana na sandeho mṛtyuṁ jayati yogavit || 44 ||

बद्धम् मूलबिल येन तेन विघ्नो विदारितः।
अजरामरमाप्नोति यथा पञ्चमुखो हरः॥ ४५॥
baddham mūlabila yena tena vighno vidāritaḥ |
ajarāmaramāpnoti yathā pañcamukho haraḥ || 45 ||

संपीड्य रसनाग्रेण राजदन्तबिलं महत्।
ध्यात्वामृतमयीं देवीं षण्मासेन कविर्भवेत्॥ ४६॥
saṁpīḍya rasanāgreṇa rājadantabilaṁ mahat |
dhyātvāmṛtamayīṁ devīṁ ṣaṇmāsena kavirbhavet || 46 ||

सर्वद्वाराणि बध्नाति तदूर्ध्वं धारितं महत्।
न मुञ्चत्यमृतंकोऽपि स पन्थाः पञ्चधारणाः॥ ४७॥
sarvadvārāṇi badhnāti tadūrdhvaṁ dhāritaṁ mahat |
na muñcatyamṛtaṁko'pi sa panthāḥ pañcadhāraṇāḥ || 47 ||

चुम्बन्ती यदि लम्बिकाग्रमनिशं जिह्वा रसस्यन्दिनी
सक्षारं कटुकाम्लदुग्धसदृशं मध्वाज्यतुल्यं तथा।
व्याधीनां हरणं जरान्तकरणं शास्त्राङ्गमोदगीरणं
तस्य स्यादमरत्वमष्टगुणितं सिद्धाङ्गनाकर्षणम्॥ ४८॥
cumbantī yadi lambikāgramaniśaṁ jihvā rasasyandinī
sakṣāraṁ kaṭukāmladugdhasadṛśaṁ madhvājyatulyaṁ tathā |
vyādhīnāṁ haraṇaṁ jarāntakaraṇaṁ śāstrāṅgamodagīraṇaṁ
tasya syādamaratvamaṣṭaguṇitaṁ siddhāṅganākarṣaṇam || 48 ||

अमृतापूर्णदेहस्य योगिनो द्वित्रिवत्सरात्।
ऊर्ध्वं प्रवर्तते रेतोऽप्यणिमादिगुणोदयः॥ ४९॥
amṛtāpūrṇadehasya yogino dvitrivatsarāt |
ūrdhvaṁ pravartate reto'pyaṇimādiguṇodayaḥ || 49 ||

ईन्धनानि यथा वह्निस्तैलवर्तिं च दीपकः।
तथा सोमकलापूर्णं देहं देही न मुञ्चति॥ ५०॥
īndhanāni yathā vahnistailavartiṁ ca dīpakaḥ |
tathā somakalāpūrṇaṁ dehaṁ dehī na muñcati || 50 ||

नित्यसोमकलपूर्णशरीरं यस्य योगिनः।
तक्षकेणापि दष्टस्य विषं तस्य न सर्पति॥ ५१॥
nityasomakalapūrṇaśarīraṁ yasya yoginaḥ |
takṣakeṇāpi daṣṭasya viṣaṁ tasya na sarpati || 51 ||

आसनेन समायुक्तः प्राणायामेन संयुतः।
प्रत्याहारेण सम्पन्नो धारणां च समभ्यसेत्॥ ५२॥
āsanena samāyuktaḥ prāṇāyāmena saṁyutaḥ |
pratyāhāreṇa sampanno dhāraṇāṁ ca samabhyaset || 52 ||

हृदये पञ्चभूतानां धारणा च पृथक् पृथक्।
मनसो निश्चलत्वेन धारणा साभिधीयते॥ ५३॥
hṛdaye pañcabhūtānāṁ dhāraṇā ca pṛthak pṛthak |
manaso niścalatvena dhāraṇā sābhidhīyate || 53 ||

य पृथ्वी हरितालहेमरुचिरा पीता लकारान्विता
संयुक्ता कमलासनेन हि चतुष्कोणाहृदि स्थायिनी।
प्राणांस्तत्र विलीय पञ्चघटिकं चित्तान्वितान्धारये
देषा स्तम्भकरी सदाक्षितिजयं कुर्यद् भुवो धारणा॥ ५४॥
ya pṛthvī haritālahemarucirā pītā lakārānvitā
saṁyuktā kamalāsanena hi catuṣkoṇāhṛdi sthāyinī |
prāṇāṁstatra vilīya pañcaghaṭikaṁ cittānvitāndhāraye
deṣā stambhakarī sadākṣitijayaṁ kuryad bhuvo dhāraṇā || 54 ||

आर्द्धेन्दुप्रतिमं च कुन्दधवलं कण्ठेऽम्बुतत्त्वं स्थितं
यत्पीयूषवकारबीजसहितं युक्तं सदा विष्णुना।
प्राण तत्रविलीय पञ्चघटिका चित्तानिवितं धारये
देषा दुःसहकालकूटदहनी स्याद्वारुणी धारणा॥ ५५॥
ārddhendupratimaṁ ca kundadhavalaṁ kaṇṭhe'mbutattvaṁ sthitaṁ
yatpīyūṣavakārabījasahitaṁ yuktaṁ sadā viṣṇunā |
prāṇa tatravilīya pañcaghaṭikā cittānivitaṁ dhāraye
deṣā duḥsahakālakūṭadahanī syādvāruṇī dhāraṇā || 55 ||

यत्तालुस्थितमिन्द्रगोपसदृशं तत्त्वं त्रिकोणानलं
तेजो रेफ़युतं प्रवालरुचिरं सत्सङ्गतम्।
प्राणं तत्र विलीय पञ्चघटिकं चित्तान्वितं धारये
देषा वह्निजयं सदा वितनुते वैश्वानरी धारणा॥ ५६॥
yattālusthitamindragopasadṛśaṁ tattvaṁ trikoṇānalaṁ
tejo refayutaṁ pravālaruciraṁ satsaṅgatam |
prāṇaṁ tatra vilīya pañcaghaṭikaṁ cittānvitaṁ dhāraye
deṣā vahnijayaṁ sadā vitanute vaiśvānarī dhāraṇā || 56 ||

यद्भिन्नाञ्जनपुञ्जसन्निभमिदं स्यूतं भ्रुवोरन्तरे
तत्त्वं वायुमयं यकारसहितं तत्रेश्वरो देवता।
प्राणं तत्रविलीय पञ्चघटिकं चित्तान्वितं धारये
देषा खेगमनं करोति यमिनः स्याद्वायवीधारणा॥ ५७॥
yadbhinnāñjanapuñjasannibhamidaṁ syūtaṁ bhruvorantare
tattvaṁ vāyumayaṁ yakārasahitaṁ tatreśvaro devatā |
prāṇaṁ tatravilīya pañcaghaṭikaṁ cittānvitaṁ dhāraye
deṣā khegamanaṁ karoti yaminaḥ syādvāyavīdhāraṇā || 57 ||

आकाशं सुविशुद्धवारिसदृशं यद् ब्रह्मरन्ध्रस्थितं
तन्नादेन सदाशिवेन सहितं तत्वं हकारान्वितम्।
प्राणं तत्र विलीया पञ्चघटीकं चित्तन्वितं धारये
देषा मोक्षकपाटपाटनपतुः प्रोक्ता नभोधारणा॥ ५८॥
ākāśaṁ suviśuddhavārisadṛśaṁ yad brahmarandhrasthitaṁ
tannādena sadāśivena sahitaṁ tatvaṁ hakārānvitam |
prāṇaṁ tatra vilīyā pañcaghaṭīkaṁ cittanvitaṁ dhāraye
deṣā mokṣakapāṭapāṭanapatuḥ proktā nabhodhāraṇā || 58 ||

स्तम्भिनी द्राविणी चैव दाहिनी भ्रामिणी तथा।
शोषिणी च भवात्येषा भूतानां पञ्चधारणाः॥ ५९॥
stambhinī drāviṇī caiva dāhinī bhrāmiṇī tathā |
śoṣiṇī ca bhavātyeṣā bhūtānāṁ pañcadhāraṇāḥ || 59 ||

कर्मणा मनसा वाचा धारणाः पञ्चदुर्लभाः।
विज्ञान सततं योगी सर्वदुःखैः प्रमुच्यते॥ ६०॥
karmaṇā manasā vācā dhāraṇāḥ pañcadurlabhāḥ |
vijñāna satataṁ yogī sarvaduḥkhaiḥ pramucyate || 60 ||

स्मृत्येव सर्वचिन्तायां धातुरेकः प्रपद्यते।
यच्चित्ते निर्मला चिन्ता तद्धि ध्यानं प्रचक्षते॥ ६१॥
smṛtyeva sarvacintāyāṁ dhāturekaḥ prapadyate |
yaccitte nirmalā cintā taddhi dhyānaṁ pracakṣate || 61 ||

द्विविधं भवति ध्यानं सकलं निष्कलं तथा।
चर्याभेदेन सकलं निष्कलं निर्गुणं भवेत्‌॥ ६२॥
dvividhaṁ bhavati dhyānaṁ sakalaṁ niṣkalaṁ tathā |
caryābhedena sakalaṁ niṣkalaṁ nirguṇaṁ bhavet || 62 ||

अन्तश्चेतो बहिश्चक्षुरधः स्थाप्य सुखासनः।
कुण्डलिन्या समायुक्तं ध्यात्वा मुच्येत किल्विषात्‌॥ ६३॥
antaśceto bahiścakṣuradhaḥ sthāpya sukhāsanaḥ |
kuṇḍalinyā samāyuktaṁ dhyātvā mucyeta kilviṣāt || 63 ||

आधारं प्रथमं चक्रं स्वर्णाभं च चतुर्दलम्‌।
कुण्डलिन्या समायुक्तं ध्यात्वा मुच्येत किल्विषैः॥ ६४॥
ādhāraṁ prathamaṁ cakraṁ svarṇābhaṁ ca caturdalam |
kuṇḍalinyā samāyuktaṁ dhyātvā mucyeta kilviṣaiḥ || 64 ||

स्वाधिष्ठाने च षट्पत्रे सन्माणिक्यसमप्रभे।
नासाग्रदृष्टिरात्मानं ध्यात्वा योगी सुखी भवेत्‌॥ ६५॥
svādhiṣṭhāne ca ṣaṭpatre sanmāṇikyasamaprabhe |
nāsāgradṛṣṭirātmānaṁ dhyātvā yogī sukhī bhavet || 65 ||

तरुणादित्यसंकाशे चक्रे च मणिपूरते।
नासाग्रदृष्टिरात्मानं ध्यात्वा संक्षोभयेज्जगत्‌॥ ६६॥
taruṇādityasaṁkāśe cakre ca maṇipūrate |
nāsāgradṛṣṭirātmānaṁ dhyātvā saṁkṣobhayejjagat || 66 ||

हृदाकाशे स्थितं शम्भु प्रचण्डरवितेजसम्‌।
नासाग्रे दृष्टिमाधाय ध्यात्वा ब्राह्ममयो भवेत्‌॥ ६७॥
hṛdākāśe sthitaṁ śambhu pracaṇḍaravitejasam |
nāsāgre dṛṣṭimādhāya dhyātvā brāhmamayo bhavet || 67 ||

विद्युत्प्रभे च हृदत्पद्मे प्राणायामविभेदतः।
नासाग्रदृष्टिरात्मानं ध्यात्वा ब्रह्ममयो॥ ६८॥
vidyutprabhe ca hṛdatpadme prāṇāyāmavibhedataḥ |
nāsāgradṛṣṭirātmānaṁ dhyātvā brahmamayo || 68 ||

सततं घणिटकामध्ये विशुद्धे दीपकप्रभे।
नासाग्रदृष्टिरात्मानं ध्यात्वानन्दमयो भवेत्‌॥ ६९॥
satataṁ ghaṇiṭakāmadhye viśuddhe dīpakaprabhe |
nāsāgradṛṣṭirātmānaṁ dhyātvānandamayo bhavet || 69 ||

भ्रुवोरन्तकर्गतं देवं सन्माणिक्यशिखोपमम्‌।
नासाग्रदृष्टिरात्मानं ध्यात्वानन्दमयो भवेत्‌॥ ७०॥
bhruvorantakargataṁ devaṁ sanmāṇikyaśikhopamam |
nāsāgradṛṣṭirātmānaṁ dhyātvānandamayo bhavet || 70 ||

ध्यायन्नीलनिभं नित्यं भूरमध्ये परमेश्वरम्‌।
आत्मानं विजितप्राणो योगी योगमवाप्नुयात्‌॥ ७१॥
dhyāyannīlanibhaṁ nityaṁ bhūramadhye parameśvaram |
ātmānaṁ vijitaprāṇo yogī yogamavāpnuyāt || 71 ||

निर्गुणं च शिवं शान्तं गगने विश्वतोमुखम्‌।
नासाग्रदृष्टिरेकाकी ध्वात्वा ब्रह्ममयो भवेत्‌॥ ७२॥
nirguṇaṁ ca śivaṁ śāntaṁ gagane viśvatomukham |
nāsāgradṛṣṭirekākī dhvātvā brahmamayo bhavet || 72 ||

आकाशे यत्र शब्दः स्यात्तदाज्ञाचक्रमुच्यते।
तत्रात्मानं शिवं ध्यात्वा योगी मुक्तिमवाप्नुयात्‌॥ ७३॥
ākāśe yatra śabdaḥ syāttadājñācakramucyate |
tatrātmānaṁ śivaṁ dhyātvā yogī muktimavāpnuyāt || 73 ||

निर्मलं गगनाकारं मरीचिजलसन्निभम्‌।
आत्मानं सर्वगं ध्यात्वा योगीमुक्तिमवाप्नुयात्‌॥ ७४॥
nirmalaṁ gaganākāraṁ marīcijalasannibham |
ātmānaṁ sarvagaṁ dhyātvā yogīmuktimavāpnuyāt || 74 ||

गुदं मेढ्रं च नाभिश्च हृत्पझं च तदूर्ध्वतः।
घण्टिका लंबिकास्थान भ्रूमध्ये च नभोबिलम्‌॥ ७५॥
gudaṁ meḍhraṁ ca nābhiśca hṛtpajhaṁ ca tadūrdhvataḥ |
ghaṇṭikā laṁbikāsthāna bhrūmadhye ca nabhobilam || 75 ||

कथितानि नवैतानि ध्यानस्थानानि योगिभिः।
उपाधितत्वमुक्तानि कुर्वन्त्यष्टगुणोदयम्‌॥ ७६॥
kathitāni navaitāni dhyānasthānāni yogibhiḥ |
upādhitatvamuktāni kurvantyaṣṭaguṇodayam || 76 ||

एषु ब्रह्मात्मकं तेजः शिवज्योतिरनुत्तमम्‌॥
ध्वात्वा ज्ञात्वा विमुक्तः स्यादिति गोरक्षभाषित्‌॥ ७७॥
eṣu brahmātmakaṁ tejaḥ śivajyotiranuttamam ||
dhvātvā jñātvā vimuktaḥ syāditi gorakṣabhāṣit || 77 ||

नाभौ संयम्य पवनगतिमधो रोधयंसंप्रयत्नादा कुण्च्पापानमूलं हुतबहसदृश तंतुवत्सूक्ष्मरूपम्‌।
तद्बद्ध्वा हृत्सरोजे तदनु दलणके तालु के ब्रह्मरंध्रे भित्वाते यांति शून्यं प्रविशति गगने यत्र देवो महेशः॥ ७८॥
nābhau saṁyamya pavanagatimadho rodhayaṁsaṁprayatnādā kuṇcpāpānamūlaṁ hutabahasadṛśa taṁtuvatsūkṣmarūpam |
tadbaddhvā hṛtsaroje tadanu dalaṇake tālu ke brahmaraṁdhre bhitvāte yāṁti śūnyaṁ praviśati gagane yatra devo maheśaḥ || 78 ||

नाभौ शुभ्रारविंद तदुपरि विमलं मंडलं चण्डरश्मेः
संसारस्यैकरूपां त्रिभुवनजननीं धर्मदात्रीं नराणाम्‌।
तस्मिनमध्ये त्रिमार्गे त्रितयतनुधरां छिन्नमस्तां प्रशस्तां
तां वंदे ज्ञानरूपां मरणभयहरां योगिनीज्ञानमुद्राम्‌॥ ७९॥
nābhau śubhrāraviṁda tadupari vimalaṁ maṁḍalaṁ caṇḍaraśmeḥ
saṁsārasyaikarūpāṁ tribhuvanajananīṁ dharmadātrīṁ narāṇām |
tasminamadhye trimārge tritayatanudharāṁ chinnamastāṁ praśastāṁ
tāṁ vaṁde jñānarūpāṁ maraṇabhayaharāṁ yoginījñānamudrām || 79 ||

अश्वमेध्सहस्राणि वाजपेयशतानि च।
एकस्य ध्यानयोगस्य तुलां नार्हन्ति षोडशीम्‌॥ ८०॥
aśvamedhsahasrāṇi vājapeyaśatāni ca |
ekasya dhyānayogasya tulāṁ nārhanti ṣoḍaśīm || 80 ||

उपाधिश्च तथा तत्त्वं द्वयमेतदुदाहृतम्‌।
उपाधिः प्रोच्यते वर्णस्तत्वमात्माभिधीयते॥ ८१॥
upādhiśca tathā tattvaṁ dvayametadudāhṛtam |
upādhiḥ procyate varṇastatvamātmābhidhīyate || 81 ||

उपाधेरन्यथा ज्ञानतत्वसंस्थितिरन्यथा।
समस्तोपाधिविध्वंसी सदाभ्यासेन जायते॥ ८२॥
upādheranyathā jñānatatvasaṁsthitiranyathā |
samastopādhividhvaṁsī sadābhyāsena jāyate || 82 ||

शब्दादीनां च तंमात्रं यावत्कर्णादिषु स्थितम्‌।
तावदेवं स्मृतं ध्यानं समाधिः स्यादतः परम्‌॥ ८३॥
śabdādīnāṁ ca taṁmātraṁ yāvatkarṇādiṣu sthitam |
tāvadevaṁ smṛtaṁ dhyānaṁ samādhiḥ syādataḥ param || 83 ||

धारण एञ्चनाडीभिर्ध्यानं च षष्टिनाडीभिः।
दिनद्वादशकेन स्यात्समाधिः प्राणसंयमात्‌॥ ८४॥
dhāraṇa eñcanāḍībhirdhyānaṁ ca ṣaṣṭināḍībhiḥ |
dinadvādaśakena syātsamādhiḥ prāṇasaṁyamāt || 84 ||

यत्सर्वं द्वंद्वयोरैक्यं जीवात्मपरमात्मनोः
समस्तनष्टसंकल्पः समाधि साभिधीयते॥ ८५॥
yatsarvaṁ dvaṁdvayoraikyaṁ jīvātmaparamātmanoḥ
samastanaṣṭasaṁkalpaḥ samādhi sābhidhīyate || 85 ||

अंबुसैंधवयोरैक्यं यथा भवति योगतः।
तथात्ममनसोरैक्यं समाधिः सोऽभिधीयते॥ ८६॥
aṁbusaiṁdhavayoraikyaṁ yathā bhavati yogataḥ |
tathātmamanasoraikyaṁ samādhiḥ so'bhidhīyate || 86 ||

यदा संक्षीयते प्राणो मानसं च प्रलीयते।
यदा समरसत्वं च समाधि सोऽभिधीयते॥ ८७॥
yadā saṁkṣīyate prāṇo mānasaṁ ca pralīyate|
yadā samarasatvaṁ ca samādhi so'bhidhīyate || 87 ||

न गंधं न रसं रूपं न च स्पर्शं न निःस्वनम्‌।
नात्मानं न परस्वं च योगी युक्तः समधिना॥ ८८॥
na gaṁdhaṁ na rasaṁ rūpaṁ na ca sparśaṁ na niḥsvanam |
nātmānaṁ na parasvaṁ ca yogī yuktaḥ samadhinā || 88 ||

अभेद्यः सर्वशस्त्राणाग्वध्यः सर्वदेहिनाम्‌।
अग्राह्यो मंत्रयंत्राणां योगी युक्तः समाधिना॥ ८९॥
abhedyaḥ sarvaśastrāṇāgvadhyaḥ sarvadehinām |
agrāhyo maṁtrayaṁtrāṇāṁ yogī yuktaḥ samādhinā || 89 ||

बाध्यते न स कालेन लिप्यते न स कर्मणा।
साध्यते न च केनापि योगीः युक्तः समाधिना॥ ९०॥
bādhyate na sa kālena lipyate na sa karmaṇā |
sādhyate na ca kenāpi yogīḥ yuktaḥ samādhinā || 90 ||

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुखहा॥ ९१॥
yuktāhāravihārasya yuktaceṣṭasya karmasu|
yuktasvapnāvabodhasya yogo bhavati dukhahā || 91 ||

निराद्यन्तं निरालम्बं निष्प्रपञ्चं निरामयम्‌।
निराश्रयं निराकारं तत्वं जानति योगवित्‌॥ ९२॥
nirādyantaṁ nirālambaṁ niṣprapañcaṁ nirāmayam |
nirāśrayaṁ nirākāraṁ tatvaṁ jānati yogavit || 92 ||

निर्मलं निश्चलं नित्यं निष्क्रियं निर्गुणं महत्‌।
व्योमाविज्ञानमानन्दं ब्रह्मं ब्रह्मविदो विदुह्॥ ९३॥
nirmalaṁ niścalaṁ nityaṁ niṣkriyaṁ nirguṇaṁ mahat |
vyomāvijñānamānandaṁ brahmaṁ brahmavido viduh || 93 ||

हेतुदृष्टान्तनिर्मुक्तं मनोबुद्ध्योरगोचरम्‌।
व्योम विज्ञानमानन्दं तत्वं तत्वविदो विदुः॥ ९४॥
hetudṛṣṭāntanirmuktaṁ manobuddhyoragocaram |
vyoma vijñānamānandaṁ tatvaṁ tatvavido viduḥ || 94 ||

निरातङ्के निरालम्बे निराधारे निरामये।
योगी योगविधानेन परे ब्रह्मणि लीयते॥ ९५॥
nirātaṅke nirālambe nirādhāre nirāmaye |
yogī yogavidhānena pare brahmaṇi līyate || 95 ||

यथा घृते घृतं क्षिप्तं घृतमेव हि जायते।
क्षीरं क्षीरे तथा योगी तत्त्वमेव हि जायते॥ ९६॥
yathā ghṛte ghṛtaṁ kṣiptaṁ ghṛtameva hi jāyate |
kṣīraṁ kṣīre tathā yogī tattvameva hi jāyate || 96 ||

दुग्धे क्षीरं धृते सर्पिरग्नौ वह्निरिवार्पितः।
तन्मयत्वं व्रजत्येवं योगी लीनः परे पदे॥ ९७॥
dugdhe kṣīraṁ dhṛte sarpiragnau vahnirivārpitaḥ |
tanmayatvaṁ vrajatyevaṁ yogī līnaḥ pare pade || 97 ||

भवभयहरं नृणां मुक्तिसोपानसंज्ञकम्।
गुह्याद् गुह्यतर गुह्यं गोरक्षेण प्रकाशितम्‌॥ ९८॥
bhavabhayaharaṁ nṛṇāṁ muktisopānasaṁjñakam |
guhyād guhyatara guhyaṁ gorakṣeṇa prakāśitam || 98 ||

गोरक्षसंहितामेतां योगभूतां जनः पठेत्‌।
सर्वपापविनिर्मुक्तो योगसिद्धिं लभेद्‌ ध्रुवम्‌॥ ९९॥
gorakṣasaṁhitāmetāṁ yogabhūtāṁ janaḥ paṭhet |
sarvapāpavinirmukto yogasiddhiṁ labhed dhruvam || 99 ||

योगशास्त्रं पठेन्नित्यं किमान्यैः शास्त्रविस्तरैः।
यत्स्वयं आदिनाथस्य निर्गतं वदनाम्बुजात्॥ १००॥
yogaśāstraṁ paṭhennityaṁ kimāanyaiḥ śāstravistaraiḥ |
yatsvayaṁ ādināthasya nirgataṁ vadanāmbujāt || 100 ||

स्नातं तेन समस्ततीर्थसलिलं दत्ता द्विजेभ्यो धरा
यज्ञानां च हुतं सहस्रमयुतं देवाश्च सम्पूजिताः।
स्वाद्वन्नेन सुतर्पिताश्च पितरः स्वर्ग च नीताः पुन
यस्य ब्रह्मविचारणे क्षणमपि प्राप्नोति धैर्यं मनः॥ १०१॥
snātaṁ tena samastatīrthasalilaṁ dattā dvijebhyo dharā
yajñānāṁ ca hutaṁ sahasramayutaṁ devāśca sampūjitāḥ |
svādvannena sutarpitāśca pitaraḥ svarga ca nītāḥ puna
yasya brahmavicāraṇe kṣaṇamapi prāpnoti dhairyaṁ manaḥ || 101 ||

॥इति श्रीगोरक्षयोगशास्त्रे गोरक्षपद्धतौ मुक्तिसोपानसंज्ञके उत्तर शतकं सम्पूर्णम्॥
||iti śrīgorakṣayogaśāstre gorakṣapaddhatau muktisopānasaṁjñake uttara śatakaṁ sampūrṇam ||

Verses from Goraksh Bani

बस्ती न सुन्यं सुन्यं न बस्ती अगम अगोचर ऐसा।
गगन सिषर मंहि बालक बोलै ताका नांव धरहुगे कैसा॥१॥
bastī na sunyaṁ sunyaṁ na bastī agama agocara aisā |
gagana siṣara maṁhi bālaka bolai tākā nāṁva dharahuge kaisā ||1||

हसिबा षेलिवा रहिबा रंग। कांम क्रोध न करिबा संग।
हसिबा षेलिबा गा‍इबा गीत। दिढ़ करि राषि आपनं चीत।७।
hasibā ṣelivā rahibā raṁga | kāṁma krodha na karibā saṁga |
hasibā ṣelibā gāibā gīta | diṛha kari rāṣi āpanaṁ cīta |7|

हसिबा षेलिवा धरिबा ध्यान। अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियांन।
हसै षेलै न करै मन भंग। ते निहचल सदा नाथ के संग।८।
hasibā ṣelivā dharibā dhyāna | ahanisi kathibā brahma giyāṁna |
hasai ṣelai na karai mana bhaṁga | te nihacala sadā nātha ke saṁga |8|

अहनिसि मन लै उनमन रहै गम कि छांड़ि अगम की कहै।
छाड़ै आसा रहै निरास कहै ब्रह्मा हूँ ताका दास।१६।
ahanisi mana lai unamana rahai gama ki chāṁṛi agama kī kahai |
chāṛai āsā rahai nirāsa kahai brahmā hū tākā dāsa |16|

अजपा जपै सुंनि मन धरै पाँचों इंद्री निग्रह करै
ब्रह्म अगनि मै होमै काया तास महादेव बंदै पाया ।१६।
ajapā japai suṁni mana dharai pācoṁ iṁdrī nigraha karai
brahma agani mai homai kāyā tāsa mahādeva baṁdai pāyā |16|

घन जोवन की करै न आस चित्त न राखै कांमनि पास।
नादबिंद जाकै घटि जरै ताकी सेवा पारबती करै।१९।
ghana jovana kī karai na āsa citta na rākhai kāṁmani pāsa |
nādabiṁda jākai ghaṭi jarai tākī sevā pārabatī karai |19|

yogasārasaṁgrahaḥ

॥ योगसारसंग्रहः॥
|| yogasārasaṁgrahaḥ ||

कुण्डलिनीस्वरूपमाह -
kuṇḍalinīsvarūpamāha -

अथ योगसारसंग्रहे कुण्डलिनी स्वरूपक्रियानिरूपणं नाम
चतुर्दशोध्यायः
atha yogasārasaṁgrahe kuṇḍalinī svarūpakriyānirūpaṇaṁ nāma
caturdaśodhyāyaḥ|

पिण्डाण्डान्तर चक्रमध्य सुषिराक्रान्ताब्ज तन्तूपमा
विद्युद्व्यक्तलतेव भाति तनुभृत् गर्भान्तरालैः सदा।
मूलाधारगता त्रिमूर्ति जननी सर्वापर ब्रह्मणः
शक्तिः कुण्डलिनी त्रिलोक जननी वान्तामृतास्वादिनी॥
piṇḍāṇḍāntara cakramadhya suṣirākrāntābja tantūpamā
vidyudvyaktalateva bhāti tanubhṛt garbhāntarālaiḥ sadā |
mūlādhāragatā trimūrti jananī sarvāpara brahmaṇaḥ
śaktiḥ kuṇḍalinī triloka jananī vāntāmṛtāsvādinī ||

कुण्डली सुफणी नागी चक्रीषप्ती सरस्वती।
ललनारसनाक्षेत्रा ललाटा शक्तिचालिनी॥
kuṇḍalī suphaṇī nāgī cakrīṣaptī sarasvatī |
lalanārasanākṣetrā lalāṭā śakticālinī ||

राजीभुजंगी शेषा च कुजाह्वा सर्पिणी फणी।
आधारशक्तिः कुटिला करलाप्राण वाहिनी॥
rājībhujaṁgī śeṣā ca kujāhvā sarpiṇī phaṇī |
ādhāraśaktiḥ kuṭilā karalāprāṇa vāhinī ||

अष्टवक्रा षडाधारा व्यापिनी कलनाधरा॥
aṣṭavakrā ṣaḍādhārā vyāpinī kalanādharā ||

चिद्रूपा कुञ्चिका बाला दुर्विज्ञेया सुरासुरैः।
दिक्कालाद्यनवच्छिन्ना सर्ववेदार्थगा शुभा॥
cidrūpā kuñcikā bālā durvijñeyā surāsuraiḥ |
dikkālādyanavacchinnā sarvavedārthagā śubhā ||

परापराविभागेन परशक्तिरियं स्मृता।
योगिनां हृदयां भोजे नृत्यन्ती नृत्तलालसा॥
parāparāvibhāgena paraśaktiriyaṁ smṛtā |
yogināṁ hṛdayāṁ bhoje nṛtyantī nṛttalālasā ||



आधारसर्वभूतानां स्फुरन्ती विद्युदाकृतिः।
शंखावर्तक्रमाद्देवि सर्वमन्त्रमयी शुभा॥
ādhārasarvabhūtānāṁ sphurantī vidyudākṛtiḥ |
śaṁkhāvartakramāddevi sarvamantramayī śubhā ||

सर्वतत्वमयी साक्षात् सूक्ष्मात् सूक्ष्ममयी विभुः।
त्रियामा जननी देवी शब्दब्रह्मस्वरूपिणी॥
sarvatatvamayī sākṣāt sūkṣmāt sūkṣmamayī vibhuḥ |
triyāmā jananī devī śabdabrahmasvarūpiṇī ||

चतुर्विंशत् सदर्णात्मा पञ्चाशद्वर्णरूपिणी।
गुणितासर्वगात्रेषु कुण्डली परदेवता॥
caturviṁśat sadarṇātmā pañcāśadvarṇarūpiṇī |
guṇitāsarvagātreṣu kuṇḍalī paradevatā ||

विश्वानना प्रबुद्धात्मा सूत्रे मणिमिमं जंगम्।
एकधा गुणिताशक्तिस्सर्वविश्वप्रवर्तका॥
viśvānanā prabuddhātmā sūtre maṇimimaṁ jaṁgam |
ekadhā guṇitāśaktissarvaviśvapravartakā ||

सर्वमन्त्रप्रसूस्तच्छ्रीः सर्वतन्त्रस्वरूपिणी।
इच्छाज्ञानक्रियात्मास्य तेजोरूपा गुणात्मिका॥
sarvamantraprasūstacchrīḥ sarvatantrasvarūpiṇī |
icchājñānakriyātmāsya tejorūpā guṇātmikā ||

पञ्चाशद्वारगुणिता पञ्चाशद्वर्णमालिका।
अग्नीषोमात्मिका शुद्धा सोमसूर्याग्नि रूपिणी॥
pañcāśadvāraguṇitā pañcāśadvarṇamālikā |
agnīṣomātmikā śuddhā somasūryāgni rūpiṇī ||

इति। कुण्डली नामानि।
iti | kuṇḍalī nāmāni |

अथ तत्संप्रवक्ष्यामि कुण्डल्युत्थापन क्रमम्।
दुर्लभं सर्वदुष्टानां साध्यानं स जपक्रमम्॥
atha tatsaṁpravakṣyāmi kuṇḍalyutthāpana kramam |
durlabhaṁ sarvaduṣṭānāṁ sādhyānaṁ sa japakramam ||

वामकेश्वर महातन्त्रे -
vāmakeśvara mahātantre -

भुजंगाकाररूपेण मूलाधारं समाश्रिता।
शक्तिः कुण्डलिनी प्रोक्ता विसतन्तु निभाशुभा॥
bhujaṁgākārarūpeṇa mūlādhāraṁ samāśritā |
śaktiḥ kuṇḍalinī proktā visatantu nibhāśubhā ||

मूलकन्दं फणाग्रेण दष्ट्वा कमलवन्दवत्।
मुखेन पुच्छं संगृह्य ब्रह्मरंध्रसमन्विता॥
mūlakandaṁ phaṇāgreṇa daṣṭvā kamalavandavat |
mukhena pucchaṁ saṁgṛhya brahmaraṁdhrasamanvitā ||

योगयाज्ञवल्क्ये -
yogayājñavalkye -

द्वादशारयुतं चक्रं नाभिदेशे प्रतिष्ठितम्।
तस्योर्ध्वे कुण्डली स्थानं नाभेस्तिर्यगधोर्ध्वगम्॥
dvādaśārayutaṁ cakraṁ nābhideśe pratiṣṭhitam |
tasyordhve kuṇḍalī sthānaṁ nābhestiryagadhordhvagam ||

अष्टप्रकृतिरूपासा त्वष्टधा कुण्डली कृता।
यथावद्वायुसंचारं ज्वलनादीनि नित्यशः॥
aṣṭaprakṛtirūpāsā tvaṣṭadhā kuṇḍalī kṛtā |
yathāvadvāyusaṁcāraṁ jvalanādīni nityaśaḥ ||

परितः कन्दपार्श्वेषु निरुध्येनं सदा स्थिता।
मुखेनैव समावेष्ट्य ब्रह्मरन्ध्रमुखं तथा॥
paritaḥ kandapārśveṣu nirudhyenaṁ sadā sthitā |
mukhenaiva samāveṣṭya brahmarandhramukhaṁ tathā ||

योगकाले त्वपानेन प्रबोधं या जलाग्निना।
स्वनन्ती हृदयाकाशे नागरूपा महोज्ज्वला॥
yogakāle tvapānena prabodhaṁ yā jalāgninā |
svanantī hṛdayākāśe nāgarūpā mahojjvalā ||

वायुर्वायुसखे नैव ततो याति सुषुम्नया॥
vāyurvāyusakhe naiva tato yāti suṣumnayā ||

प्रणवचिन्तामणौ -
praṇavacintāmaṇau -

तत्रानलं वायुसखेन सार्धं धिया समारोप्य निरोधयेत् ततः।
ध्यायन् सदा चक्रणमप्रबुद्धं नाभौ सदा कुण्डलिनं निविष्टम्॥
tatrānalaṁ vāyusakhena sārdhaṁ dhiyā samāropya nirodhayet tataḥ |
dhyāyan sadā cakraṇamaprabuddhaṁ nābhau sadā kuṇḍalinaṁ niviṣṭam ||

नालं समावेष्ट्यमुखेन मध्यामन्यांश्च भोगेन सिरास्तथैव।
स्वपुच्छमास्येन निगृह्य सम्यक् पदं च संयम्यमरुद्गणानाम्॥
nālaṁ samāveṣṭyamukhena madhyāmanyāṁśca bhogena sirāstathaiva |
svapucchamāsyena nigṛhya samyak padaṁ ca saṁyamyamarudgaṇānām ||

प्रबुद्ध नागेन्द्रवदुच्छ्वसन्ती सदाप्रबुद्धा प्रभया ज्वलन्ती।
नाभौ सदा तिष्ठति कुण्डली सा तिर्यग़्मनुष्येषु तथेतरेषु॥
prabuddha nāgendravaducchvasantī sadāprabuddhā prabhayā jvalantī |
nābhau sadā tiṣṭhati kuṇḍalī sā tiryaġmanuṣyeṣu tathetareṣu ||

उत्पत्ति नाश स्थिति हेतु भूतमाधारपद्मासन रन्ध्रपूर्णम्।
योगेष्टसिद्धिप्रदमादिमूलं जानीहितं कुण्डलिनं निविष्टम्॥
utpatti nāśa sthiti hetu bhūtamādhārapadmāsana randhrapūrṇam |
yogeṣṭasiddhipradamādimūlaṁ jānīhitaṁ kuṇḍalinaṁ niviṣṭam ||

वायुना विवृतवह्नि शिखाभिः कन्दमध्यगतनाडिषु संस्थात्।
कुण्डलीं दहति यत्स्वभिरूपं संस्मरन्नपरवस्तु न एव॥
vāyunā vivṛtavahni śikhābhiḥ kandamadhyagatanāḍiṣu saṁsthāt |
kuṇḍalīṁ dahati yatsvabhirūpaṁ saṁsmarannaparavastu na eva ||

सन्तप्त वायुना तत्र वह्निना च प्रतापिता।
प्रसार्य फणभृद्भोगी प्रबोधं याति सत्वरा॥
santapta vāyunā tatra vahninā ca pratāpitā |
prasārya phaṇabhṛdbhogī prabodhaṁ yāti satvarā ||

बोधंगते चक्रिणि नाभिमध्ये प्राणान् सुसंभूय कलेबरेस्मिन्।
चरन्ति सर्वे सह वह्नि नैव यथा पटेतन्तु गतिस्तथैव॥
bodhaṁgate cakriṇi nābhimadhye prāṇān susaṁbhūya kalebaresmin |
caranti sarve saha vahni naiva yathā paṭetantu gatistathaiva ||

जित्वैवं चक्रिणी स्थानं तथाध्यानपरायणः।
ततो नयेदपानन्तु नाभेरूर्ध्वमनुस्मरन्॥
jitvaivaṁ cakriṇī sthānaṁ tathādhyānaparāyaṇaḥ |
tato nayedapānantu nābherūrdhvamanusmaran ||

योगसारमञ्जर्याम् -
yogasāramañjaryām -

वायुयदावायुसखेन सार्धं नाभिं त्वतिक्रम्यगतः शरीरम्।
रोगाश्च नश्यन्ति बलाभिवृद्धिः कान्तिस्तदानीं भवन्ति प्रबुद्धा॥
vāyuyadāvāyusakhena sārdhaṁ nābhiṁ tvatikramyagataḥ śarīram |
rogāśca naśyanti balābhivṛddhiḥ kāntistadānīṁ bhavanti prabuddhā ||

ब्रह्मरन्ध्रमुखं मन्त्रवायवः पावकेन सहयान्ति समूह्याः।
केन चित्विह वदामि तवाहं वीक्षितं हृदि च दीपशिवावत्॥
brahmarandhramukhaṁ mantravāyavaḥ pāvakena sahayānti samūhyāḥ |
kena citviha vadāmi tavāhaṁ vīkṣitaṁ hṛdi ca dīpaśivāvat ||

निरोधितः स्याद्धृदि तेन वायुनामध्ये तदा वायुसखेन सार्धम्।
सहस्रपद्मस्य मुखं प्रविश्य कुर्यात्पुनस्त्वूर्ध्वमुखं द्विजेन्द्रे॥
nirodhitaḥ syāddhṛdi tena vāyunāmadhye tadā vāyusakhena sārdham |
sahasrapadmasya mukhaṁ praviśya kuryātpunastvūrdhvamukhaṁ dvijendre ||

प्रबुद्ध हृदयाम्भोजे गौर्यस्मिन् ब्रह्मणः पुरे।
बालात् श्रेणिवद्व्योम्नि विरराजसमीरणः॥
prabuddha hṛdayāmbhoje gauryasmin brahmaṇaḥ pure |
bālāt śreṇivadvyomni virarājasamīraṇaḥ ||

आहुर्मध्ये सुषुम्नायाः संस्थितो हुतभुक्तदा।
स जलाम्बुदमालासु विद्युल्लेखे वराजते॥
āhurmadhye suṣumnāyāḥ saṁsthito hutabhuktadā |
sa jalāmbudamālāsu vidyullekhe varājate ||

निरुध्यनाडी द्वितयं सोमसूर्यात्मकं प्रिये।
संप्राप्यकुम्भकावस्थां स्थिरचेता दृढासनः॥
nirudhyanāḍī dvitayaṁ somasūryātmakaṁ priye |
saṁprāpyakumbhakāvasthāṁ sthiracetā dṛḍhāsanaḥ ||

संरुध्य च मनः स्वान्ते मूलाधारधराधरे।
हृत्कोणपुरमध्यस्थ वाहिसूर्येन्दुमण्डले॥
saṁrudhya ca manaḥ svānte mūlādhāradharādhare |
hṛtkoṇapuramadhyastha vāhisūryendumaṇḍale ||

सुषुप्तभुजगाकारं सर्वमन्त्रमयीं पराम्।
इलापिग़्गलयो ग्रन्थि भेदत्रयविभेदिनीम्॥
suṣuptabhujagākāraṁ sarvamantramayīṁ parām |
ilāpiġgalayo granthi bhedatrayavibhedinīm ||

षडम्बुजदरीमार्ग कवाटोद्घाटनक्षमाम्।
शनैरुन्नीयतां मूलादाज्ञायां सन्निवेशयेत्।
ततो रसनया भित्वा शिव द्वारार्गलं महत्॥
ṣaḍambujadarīmārga kavāṭodghāṭanakṣamām |
śanairunnīyatāṁ mūlādājñāyāṁ sanniveśayet |
tato rasanayā bhitvā śiva dvārārgalaṁ mahat ||

ब्रह्मरंध्रे दृगाधाय स्थिरं कृत्वा मनो हृदि।
तत्रापि मण्डलं देवी शृंगाटं सुमहोज्ज्वलम्॥
brahmaraṁdhre dṛgādhāya sthiraṁ kṛtvā mano hṛdi |
tatrāpi maṇḍalaṁ devī śṛṁgāṭaṁ sumahojjvalam ||

त्रिकोणं तु विजानीयात् वह्निसूर्येन्दुगर्भकम्।
तत्रेन्दु मण्डले देवी परमात्मा सदाशिवः॥
trikoṇaṁ tu vijānīyāt vahnisūryendugarbhakam |
tatrendu maṇḍale devī paramātmā sadāśivaḥ ||

यावन्नशक्त्या संयोगं प्राप्नोति परमेश्वरः।
तावद् भ्रमयते विश्वं यन्त्रारूढं तु मायया॥
yāvannaśaktyā saṁyogaṁ prāpnoti parameśvaraḥ |
tāvad bhramayate viśvaṁ yantrārūḍhaṁ tu māyayā ||

शिवः -
śivaḥ -

मूलाधारात् समुद्यन्ती शक्तिः कुण्डलिनी परा।
स्वमन्त्रोच्चारणा देव सम्यगूर्ध्वमुखी तदा॥
mūlādhārāt samudyantī śaktiḥ kuṇḍalinī parā |
svamantroccāraṇā deva samyagūrdhvamukhī tadā ||

षड्ढुंकार स्वरोद्भिन्न षडंभुजकवाटिका।
ṣaḍḍhuṁkāra svarodbhinna ṣaḍaṁbhujakavāṭikā |

भित्वा ब्रह्मार्गलं दिव्यं स्वपते स्थानमेयुषी।
वह्न्यर्कमण्डलं भित्वा द्रवन्ति चन्द्रमण्डलम्॥
bhitvā brahmārgalaṁ divyaṁ svapate sthānameyuṣī |
vahnyarkamaṇḍalaṁ bhitvā dravanti candramaṇḍalam ||

तदुद्भवामृता स्वादा परमानन्दनन्दिनी॥
tadudbhavāmṛtā svādā paramānandanandinī ||

कुलयोषित् कुलंत्यक्त्वा परंपुरुषमेयुषी।
निर्लक्ष्यं निर्गुणं चैव कुलरूपविवर्जितम्॥
kulayoṣit kulaṁtyaktvā paraṁpuruṣameyuṣī |
nirlakṣyaṁ nirguṇaṁ caiva kularūpavivarjitam ||

तत्र स्वच्छन्दरूपा तु परिरभ्य स्वकंपतिम्।
विश्राम्य च चिरं कालं तद्भोगाह्लाद नन्दिता॥
tatra svacchandarūpā tu parirabhya svakaṁpatim |
viśrāmya ca ciraṁ kālaṁ tadbhogāhlāda nanditā ||

परमावृष्टिभिर्नित्यं सिञ्चन्ती योगिनस्तनुम्।
यथा गतेनमार्गेण पुनरेति स्वकं पतिम्॥
paramāvṛṣṭibhirnityaṁ siñcantī yoginastanum |
yathā gatenamārgeṇa punareti svakaṁ patim ||

अनेन देवि योगेन मासाद्योगीश्वरो भवेत्।
षण्मासादणिमादीनां सिद्धीनामधिपो भवेत्॥
anena devi yogena māsādyogīśvaro bhavet |
ṣaṇmāsādaṇimādīnāṁ siddhīnāmadhipo bhavet ||

वत्सरात् पिबते नित्यं समुद्रमपि लीलया।
अर्कानिल नलादीनां जलानां स्तम्भनं क्रमात्॥
vatsarāt pibate nityaṁ samudramapi līlayā |
arkānila nalādīnāṁ jalānāṁ stambhanaṁ kramāt ||

करोति लीलया योगी रुद्रशक्ति प्रभावतः।
त्र्यब्दात्सर्वज्ञको भूत्वा वलीपलितवर्जितः॥
karoti līlayā yogī rudraśakti prabhāvataḥ |
tryabdātsarvajñako bhūtvā valīpalitavarjitaḥ ||

महाबलो वज्रकायो जीवेदा चन्द्रतारकम्।
शक्तिमन्त्रमहायोगः कथितस्तवसुव्रते॥
mahābalo vajrakāyo jīvedā candratārakam |
śaktimantramahāyogaḥ kathitastavasuvrate ||

वाञ्छाकल्पद्रुमाः सत्यं सत्यं यत्खेचरी पदे॥
vāñchākalpadrumāḥ satyaṁ satyaṁ yatkhecarī pade ||

श्रीशिवः -
śrīśivaḥ -

स्थिरमासनमासीनः सकलीकृतविग्रहः।
जितश्वासो जितमताः जितकर्मा जितेन्द्रियः॥
sthiramāsanamāsīnaḥ sakalīkṛtavigrahaḥ |
jitaśvāso jitamatāḥ jitakarmā jitendriyaḥ ||

नियोज्यघटिका यन्त्रे रसनां निश्चलात्मिकाम्।
अधस्ताच्चिन्तयेच्चक्रमाक्रान्ताधारमण्डलम्॥
niyojyaghaṭikā yantre rasanāṁ niścalātmikām |
adhastāccintayeccakramākrāntādhāramaṇḍalam ||

तत्र मध्ये समुद्दीप्तां मूलशक्तिं विभावयेत्।
प्राणान्निरुध्योर्ध्वमुखीन्नयेद् भित्वाषडंबुजम्॥
tatra madhye samuddīptāṁ mūlaśaktiṁ vibhāvayet |
prāṇānnirudhyordhvamukhīnnayed bhitvāṣaḍaṁbujam ||

एकीभूता हि नादाख्य चक्रभेदक्षमेण च।
तटिद्वलयसंकाशां स्फुरत्किरणरूपिणीम्॥
ekībhūtā hi nādākhya cakrabhedakṣameṇa ca |
taṭidvalayasaṁkāśāṁ sphuratkiraṇarūpiṇīm ||

चिद्रूपां च निरालम्बे शून्य तेजो मये परे।
ब्रह्मद्वारस्य गर्भान्ते विसर्गाख्ये विलीयते॥
cidrūpāṁ ca nirālambe śūnya tejo maye pare |
brahmadvārasya garbhānte visargākhye vilīyate ||

ततो रसनयोद्भिद्य प्रविशेद् ब्रह्मणः पदम्।
तस्मिन् कुलामृतं दिव्यं पीत्वाभूयो विशेत्कुलम्॥
tato rasanayodbhidya praviśed brahmaṇaḥ padam |
tasmin kulāmṛtaṁ divyaṁ pītvābhūyo viśetkulam ||

तेन प्राशितमात्रेण परां सिद्धिमवाप्नुयात्॥ इति।
tena prāśitamātreṇa parāṁ siddhimavāpnuyāt || iti |

अथातः संप्रवक्ष्यामि मुद्रांखेचरिसंज्ञिकाम्॥
athātaḥ saṁpravakṣyāmi mudrāṁkhecarisaṁjñikām ||

यथा विज्ञातया मर्त्यो लोकेस्मिन्न जरामरः।
मृत्युव्याधिजराग्रस्तं दृष्ट्वा लोकमिमं प्रिये॥
yathā vijñātayā martyo lokesminna jarāmaraḥ |
mṛtyuvyādhijarāgrastaṁ dṛṣṭvā lokamimaṁ priye ||

बुद्धिं दृढतरं कृत्वा खेचरीं तु समभ्यसेत्॥
buddhiṁ dṛḍhataraṁ kṛtvā khecarīṁ tu samabhyaset ||

प्रकटेन मयाप्रोक्तंमिदानीं खेचरीं शृणु॥
prakaṭena mayāproktaṁmidānīṁ khecarīṁ śṛṇu ||

यत्रास्ते च गुरुर्देव दिव्ययोगप्रसादकः।
तत्र गत्वा च तेनोक्तां विद्यां संगृह्य खेचरीम्।
न तया रहितो योगी खेचरी सिद्धि भाग्भवेत्॥
yatrāste ca gururdeva divyayogaprasādakaḥ |
tatra gatvā ca tenoktāṁ vidyāṁ saṁgṛhya khecarīm |
na tayā rahito yogī khecarī siddhi bhāgbhavet ||

खेचर्य खेचरीं युञ्जन् खेचरी बीज पूर्वया।
खचराधिपतिर्भूत्वा खेचरीषु सदा चरेत्।
खेचरावसथो वह्निरग्निमण्डलभूषितम्॥
khecarya khecarīṁ yuñjan khecarī bīja pūrvayā |
khacarādhipatirbhūtvā khecarīṣu sadā caret |
khecarāvasatho vahniragnimaṇḍalabhūṣitam ||

व्याख्यातं खेचरी बीजं तेन योगः प्रसिध्यति।
मस्तकाख्यं महाचण्ड शिखी वह्निखवज्रभृत्॥
vyākhyātaṁ khecarī bījaṁ tena yogaḥ prasidhyati |
mastakākhyaṁ mahācaṇḍa śikhī vahnikhavajrabhṛt ||

पूर्वबीजयुताविद्या व्याख्याता ह्यतिदुर्लभा।
षडंगविद्यां वक्ष्यामि तथाषट्स्वरभिन्नया॥
pūrvabījayutāvidyā vyākhyātā hyatidurlabhā |
ṣaḍaṁgavidyāṁ vakṣyāmi tathāṣaṭsvarabhinnayā ||

कुर्याद्देवी यथा न्यायं सर्वविद्याप्ति हेतवे।
सोमेशा नवमं वर्णं प्रतिलोमेन चोच्चरेत्॥
kuryāddevī yathā nyāyaṁ sarvavidyāpti hetave |
someśā navamaṁ varṇaṁ pratilomena coccaret ||

तस्यात्रिंशकमाख्यातमक्षरं च स रूपकम्।
तस्मादप्यष्टकं वर्णं विलोमेनावलं प्रिये॥
tasyātriṁśakamākhyātamakṣaraṁ ca sa rūpakam |
tasmādapyaṣṭakaṁ varṇaṁ vilomenāvalaṁ priye ||

ततस्तत्पञ्चमं देवि तदादिरविपञ्चमम्।
इन्दोर्ह्रीं बिन्दुसंभिन्नं कूटोयं परिकीर्तितः॥
tatastatpañcamaṁ devi tadādiravipañcamam |
indorhrīṁ bindusaṁbhinnaṁ kūṭoyaṁ parikīrtitaḥ ||

गुरूपदेशलभ्यं च सर्वरोगप्रसिद्धिदम्।
एतस्य देवजा माया विरूपकरणाश्रया॥
gurūpadeśalabhyaṁ ca sarvarogaprasiddhidam |
etasya devajā māyā virūpakaraṇāśrayā ||

स्वप्नेपि न भवेत् तस्य नित्यं द्वादश जप्यकः।
यड्मरुपञ्चलक्षाणि जपेदपि सुयन्त्रितः॥
svapnepi na bhavet tasya nityaṁ dvādaśa japyakaḥ |
yaḍmarupañcalakṣāṇi japedapi suyantritaḥ ||

तस्य श्रीखेचरी सिद्धिः स्वयमेव प्रवर्तते॥ इति।
tasya śrīkhecarī siddhiḥ svayameva pravartate || iti |

आदिनाथः -
ādināthaḥ -

एवं यस्य प्रबुद्धा सा तस्य सिद्धिर्भवेद्ध्रुवम्।
सर्वशास्तार्थ वेत्तृत्वं सौभाग्यं परमन्ततः॥
evaṁ yasya prabuddhā sā tasya siddhirbhaveddhruvam |
sarvaśāstārtha vettṛtvaṁ saubhāgyaṁ paramantataḥ ||

काव्यं च सर्वभाषाभिस्सालग़्कारपदोज्ज्वलम्।
करोति लीलया योगी रुद्रशक्ति प्रबोधनात्॥
kāvyaṁ ca sarvabhāṣābhissālaġkārapadojjvalam |
karoti līlayā yogī rudraśakti prabodhanāt ||

अनेनैव प्रकारेण सर्वमन्त्राः स्फुरन्ति हि।
रुद्रग्रन्थिं ततो भित्वा मणिपूरे समानयेत्।
मणिपूरे यदा विष्टा शान्ति श्रीपुष्टि तुष्टयः॥
anenaiva prakāreṇa sarvamantrāḥ sphuranti hi |
rudragranthiṁ tato bhitvā maṇipūre samānayet |
maṇipūre yadā viṣṭā śānti śrīpuṣṭi tuṣṭayaḥ ||

आकर्षणं परक्षोभं भवन्त्येता हि सिद्धयः।
मणीपूरात् समानाय्य स्वाधिष्ठाने प्रवेशयेत्॥
ākarṣaṇaṁ parakṣobhaṁ bhavantyetā hi siddhayaḥ |
maṇīpūrāt samānāyya svādhiṣṭhāne praveśayet ||

योगंगते स्वात्मनि नाभिमध्ये प्राणान् सुंसंभूय कलेवरेस्मिन्।
स चरन्ति सर्वे सह वह्निनैव यथा पटे तन्तु गतिस्तथैव॥
yogaṁgate svātmani nābhimadhye prāṇān suṁsaṁbhūya kalevaresmin |
sa caranti sarve saha vahninaiva yathā paṭe tantu gatistathaiva ||

योगग्रन्थिं च भित्वाथ मण्डलं च भिनत्यथ।
योगसारमञ्जर्याम् -
yogagranthiṁ ca bhitvātha maṇḍalaṁ ca bhinatyatha |
yogasāramañjaryām -

अनाहतं तु संलीनो योगग्रन्थिविभेदनात्॥
anāhataṁ tu saṁlīno yogagranthivibhedanāt ||

गिरीणां पातनं चैव देवि कुर्यान्मृत्योश्च वञ्छनम्॥
girīṇāṁ pātanaṁ caiva devi kuryānmṛtyośca vañchanam ||

प्रणवचिन्तामणौ -
praṇavacintāmaṇau -

यदा विशुद्धमानीतं सामृतप्राशनं तदा।
योगिनः संप्रवर्तन्ते ह्यणिमाद्यष्टसिद्धयः॥
yadā viśuddhamānītaṁ sāmṛtaprāśanaṁ tadā |
yoginaḥ saṁpravartante hyaṇimādyaṣṭasiddhayaḥ ||

तदूर्ध्वे लम्बिकां भित्वानासाग्रं तु समानयेत्।
नासाग्रे श्वाससंभिन्न भ्रूमध्ये सन्निवेशयेत्॥
tadūrdhve lambikāṁ bhitvānāsāgraṁ tu samānayet |
nāsāgre śvāsasaṁbhinna bhrūmadhye sanniveśayet ||

आज्ञास्थानगतो योगी सर्वं जानाति सर्वदा॥
ājñāsthānagato yogī sarvaṁ jānāti sarvadā ||

योगसारमंजर्याम् -
yogasāramaṁjaryām -

श्वासेनसहितं जीवं तेजोरूपं ललाटके।
गत्वालक्ष्यं ललाटस्थं प्रविशेत् सूर्यसन्निभम्॥
śvāsenasahitaṁ jīvaṁ tejorūpaṁ lalāṭake |
gatvālakṣyaṁ lalāṭasthaṁ praviśet sūryasannibham ||

कुञ्चिकाग्रं ततः सूक्ष्मं चिद्रूपाणि च सुस्थिरम्।
उद्घाटयेत् ततो द्वारं शिवद्वारार्गलं महत्॥
kuñcikāgraṁ tataḥ sūkṣmaṁ cidrūpāṇi ca susthiram |
udghāṭayet tato dvāraṁ śivadvārārgalaṁ mahat ||

बिन्दुं द्विरर्गलं भित्वा दुर्भेद्यं त्रिदशैरपि।
ब्रह्माण्डोदरमित्युक्तं योगिनीसिद्धिसेवितम्॥
binduṁ dvirargalaṁ bhitvā durbhedyaṁ tridaśairapi |
brahmāṇḍodaramityuktaṁ yoginīsiddhisevitam ||

तदेतंगुलोत्सेधं कपाले संव्यवस्थितम्।
शक्तिचक्रप्रवेशेन सर्वसिद्धिर्भवेद्ध्रुवम्॥
tadetaṁgulotsedhaṁ kapāle saṁvyavasthitam |
śakticakrapraveśena sarvasiddhirbhaveddhruvam ||

आदिनाथः -
ādināthaḥ -

अपानवृत्तिमाकृष्य प्राणो गच्छतिमध्यमे।
राजते गगनां भोजे राजयोगस्तु तेन वै॥
apānavṛttimākṛṣya prāṇo gacchatimadhyame |
rājate gaganāṁ bhoje rājayogastu tena vai ||

एतत् साधनमार्गस्य लक्षणं वक्ष्यतेधुना।
प्राकाराणि शरीरस्य षडुत्तानत्वगादिभिः॥
etat sādhanamārgasya lakṣaṇaṁ vakṣyatedhunā |
prākārāṇi śarīrasya ṣaḍuttānatvagādibhiḥ ||

षडब्जैष्षट्क वाटैस्तद्रक्षितं पञ्चवायुभिः।
तन्मध्ये सुषिरं सूक्ष्मं तत्र लिग़्गं शिवालयम्॥
ṣaḍabjaiṣṣaṭka vāṭaistadrakṣitaṁ pañcavāyubhiḥ |
tanmadhye suṣiraṁ sūkṣmaṁ tatra liġgaṁ śivālayam ||

तस्यशक्तिः स्थिताबाह्ये प्राकारद्वारमण्टपे।
तटिद्वलयसंकाशां सुप्तांपतिविलोलुपाम्॥
tasyaśaktiḥ sthitābāhye prākāradvāramaṇṭape |
taṭidvalayasaṁkāśāṁ suptāṁpativilolupām ||

प्राकारपालकेनैव कवाटानां प्रभेदनम्।
कृत्वातां प्रापयेच्छम्भुं तत्क्षणाद्ब्रह्मवर्त्मना॥
prākārapālakenaiva kavāṭānāṁ prabhedanam |
kṛtvātāṁ prāpayecchambhuṁ tatkṣaṇādbrahmavartmanā ||

पूरयेन्मारुतं दिव्यं सुषुम्ना पश्चिमे मुखे।
शनैः संबोधये च्छक्तिं कुण्डली मनुनैवताम्॥
pūrayenmārutaṁ divyaṁ suṣumnā paścime mukhe |
śanaiḥ saṁbodhaye cchaktiṁ kuṇḍalī manunaivatām ||

पवनेनसमाकृष्य योजयेत् पतिना सह॥ इति।
pavanenasamākṛṣya yojayet patinā saha || iti |

शक्तिध्यानं विनायोगी शक्तिहीनः प्रजायते॥
शक्तिध्यानप्रयोगेण शक्तियुक्तो भवेद् ध्रुवम्॥
śaktidhyānaṁ vināyogī śaktihīnaḥ prajāyate ||
śaktidhyānaprayogeṇa śaktiyukto bhaved dhruvam ||

अथ मन्त्रोद्धारः -
atha mantroddhāraḥ -

कुण्डलीश प्लदं देवि कुण्डलीशसमन्वितम्।
कुण्डली कुण्डला बिन्दु नादमध्यस्थ लांछिताम्॥
kuṇḍalīśa pladaṁ devi kuṇḍalīśasamanvitam |
kuṇḍalī kuṇḍalā bindu nādamadhyastha lāṁchitām ||

एतच्छक्ति मयं बीजं रहस्यं सुप्रकाशितम्।
पञ्चलक्षं जपेदाशुसिद्धिर्भवति योगिनः॥
etacchakti mayaṁ bījaṁ rahasyaṁ suprakāśitam |
pañcalakṣaṁ japedāśusiddhirbhavati yoginaḥ ||

ओं कुण्डलीं कुण्डलीश कुण्डली कुण्डला ओं॥ इति॥
oṁ kuṇḍalīṁ kuṇḍalīśa kuṇḍalī kuṇḍalā oṁ || iti ||

बिन्दुः प्रणवः। नादं दीर्घस्वरः। तदुक्तं नादबिन्दुपनिषदि
binduḥ praṇavaḥ | nādaṁ dīrghasvaraḥ | taduktaṁ nādabindupaniṣadi

बीजाक्षरं परं बिन्दु नादं तस्योपरिस्थितम्॥ इति।
bījākṣaraṁ paraṁ bindu nādaṁ tasyoparisthitam || iti |

नारसिंहतापनीये -
nārasiṁhatāpanīye -

वेदादि मूलं सकलं स्वराणां त्रयोदशस्थं शशिबिन्दुरूपम्।
वेदान्वितं सुप्तभुजंगरूपं यो वेत्ति विद्वान् स विमुक्तिमेति॥ इति।
vedādi mūlaṁ sakalaṁ svarāṇāṁ trayodaśasthaṁ śaśibindurūpam |
vedānvitaṁ suptabhujaṁgarūpaṁ yo vetti vidvān sa vimuktimeti || iti |

योगिनीहृदये च -
yoginīhṛdaye ca -

या मूलाद्दूरगाशक्तिः स्वाधारे बिन्दुरूपिणी।
तस्यामुत्पद्यते नादः सूक्ष्मरूपो दिवाकरः॥
yā mūlāddūragāśaktiḥ svādhāre bindurūpiṇī |
tasyāmutpadyate nādaḥ sūkṣmarūpo divākaraḥ ||

स्थूलसूक्ष्मभेदेन बिन्दुनाथास्त्री विधः।
sthūlasūkṣmabhedena bindunāthāstrī vidhaḥ |

तदुक्तं शिवयोगे -
taduktaṁ śivayoge -

स्थूलसूक्ष्मपरश्चेति त्रिविधो बिन्दुरद्रिजे।
स्थूलश्शुक्रात्मको बिन्दुः सूक्ष्मः पञ्चाग्नि रूपकः॥
sthūlasūkṣmaparaśceti trividho binduradrije |
sthūlaśśukrātmako binduḥ sūkṣmaḥ pañcāgni rūpakaḥ ||

सोमात्मकः परः प्रोक्तः स तु नित्यस्सदा शिवः॥
somātmakaḥ paraḥ proktaḥ sa tu nityassadā śivaḥ ||

तदुक्तं शूलिनीकल्पे -
taduktaṁ śūlinīkalpe -

शुक्रं प्रवृत्तमिति। सूक्ष्मपञ्चाग्नि रूपकः। पञ्चमात्रः प्रणवः।
सोमात्मकः परः। षोडशमात्रायुक्तः प्रणवः॥
śukraṁ pravṛttamiti | sūkṣmapañcāgni rūpakaḥ | pañcamātraḥ praṇavaḥ |
somātmakaḥ paraḥ | ṣoḍaśamātrāyuktaḥ praṇavaḥ ||

अनयारहितो योगी न क्वचित्फलमाप्नुयात्।
बीजेन हि विनावृक्षः कथं संजायते भुवि॥
anayārahito yogī na kvacitphalamāpnuyāt |
bījena hi vināvṛkṣaḥ kathaṁ saṁjāyate bhuvi ||

तदेवाक्षरमध्यस्थं प्ररोहति कथं पुनः।
सर्वयोगद्रुमस्यायं बीज भूतो महामनुः॥
tadevākṣaramadhyasthaṁ prarohati kathaṁ punaḥ |
sarvayogadrumasyāyaṁ bīja bhūto mahāmanuḥ ||

तदुक्तं कठवल्क्योपनिषदि -
taduktaṁ kaṭhavalkyopaniṣadi -

सर्वे देवायत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमि त्येतत्॥
sarve devāyatpadamāmananti tapāṁsi sarvāṇi ca yadvadanti |
yadicchanto brahmacaryaṁ caranti tatte padaṁ saṁgraheṇa bravīmyomi tyetat ||

अतः। स्थूलसूक्ष्मभेदेन बिन्दुशब्दः प्रणवस्यैव॥
ataḥ | sthūlasūkṣmabhedena binduśabdaḥ praṇavasyaiva ||

गोरक्षः। धूमोमरीचिः खद्योतः दीप ज्वालेन्दु भास्वरः।
अमीकला महाबिन्दो बिन्दुविश्वविभासकः॥ इति।
gorakṣaḥ | dhūmomarīciḥ khadyotaḥ dīpa jvālendu bhāsvaraḥ |
amīkalā mahābindo binduviśvavibhāsakaḥ || iti |

आदिनाथः -
ādināthaḥ -

एवं यस्य प्रबुद्धा सा तस्यसिद्धिः करस्थिता।
सर्वशास्त्रार्थ वेत्तृत्वं सौभाग्यं परमन्ततः॥
evaṁ yasya prabuddhā sā tasyasiddhiḥ karasthitā |
sarvaśāstrārtha vettṛtvaṁ saubhāgyaṁ paramantataḥ ||

काव्यं च सर्वभाषाभिः सालंकार पदोज्ज्वलम्।
करोति लीलया योगी रुद्रशक्ति प्रबोधनात्॥
kāvyaṁ ca sarvabhāṣābhiḥ sālaṁkāra padojjvalam |
karoti līlayā yogī rudraśakti prabodhanāt ||

अनेनैव प्रकारेण सर्वमात्रान् स्फुरन्ति हि।
रुद्रग्रन्थिं ततो भित्वा विष्णुग्रन्थिंभिनत्यतः॥
anenaiva prakāreṇa sarvamātrān sphuranti hi |
rudragranthiṁ tato bhitvā viṣṇugranthiṁbhinatyataḥ ||

ब्रह्मग्रन्थिं ततो भित्वा कमलानिभिनत्ति षट्।
सहस्रकमलेशक्तिश्शिवेन परिमोदते॥
brahmagranthiṁ tato bhitvā kamalānibhinatti ṣaṭ |
sahasrakamaleśaktiśśivena parimodate ||

मणिपूरे यदा विष्ठा शान्तिश्श्री तुष्टि पुष्टयः।
आकर्षणं परक्षोभो भवन्त्येव हि सिद्धयः॥
maṇipūre yadā viṣṭhā śāntiśśrī tuṣṭi puṣṭayaḥ |
ākarṣaṇaṁ parakṣobho bhavantyeva hi siddhayaḥ ||

मणिपूरात्समानीय स्वाधिष्ठाने प्रवेशयेत्।
स्वाधिष्ठानात् समानीय चानाहत पदं नयेत्॥
maṇipūrātsamānīya svādhiṣṭhāne praveśayet |
svādhiṣṭhānāt samānīya cānāhata padaṁ nayet ||

योगसारमञ्जर्याम् -
yogasāramañjaryām -

अनाहते तु संलीने योगग्रन्थिविभेदनात्।
anāhate tu saṁlīne yogagranthivibhedanāt |

गिरीणां पातनं देवि कुर्यान्मृत्योश्च वञ्छनम्॥
girīṇāṁ pātanaṁ devi kuryānmṛtyośca vañchanam ||

यदा विशुद्धमानीतः सा मृतप्राशनं तदा।
योगिनः संप्रवर्तन्ते ह्यणिमाद्यष्टसिद्धयः॥
yadā viśuddhamānītaḥ sā mṛtaprāśanaṁ tadā |
yoginaḥ saṁpravartante hyaṇimādyaṣṭasiddhayaḥ ||

तदूर्ध्वं लाम्भिकां भित्वा नासाग्रं तु समानयेत्।
नासाग्रे श्वाससंभिन्नं भ्रूमध्ये संनिवेशयेत्॥
tadūrdhvaṁ lāmbhikāṁ bhitvā nāsāgraṁ tu samānayet |
nāsāgre śvāsasaṁbhinnaṁ bhrūmadhye saṁniveśayet ||

आज्ञास्थानगतो योगी सर्वं जानाति सर्वदा।
ājñāsthānagato yogī sarvaṁ jānāti sarvadā |

योगसारमंजर्याम् -
yogasāramaṁjaryām -

श्वासेन सहितं जीवं तेजोरूपं ललाटिके॥
śvāsena sahitaṁ jīvaṁ tejorūpaṁ lalāṭike ||

गत्वालक्ष्यं ललाटस्थं प्रविशेत् सूर्यसन्निभम्।
कुञ्चिकाग्रं ततः सूक्ष्मं चिद्रूपाणि च सुस्थिरम्॥
gatvālakṣyaṁ lalāṭasthaṁ praviśet sūryasannibham |
kuñcikāgraṁ tataḥ sūkṣmaṁ cidrūpāṇi ca susthiram ||

उद्घाटयेत् ततो योगी द्वारं शिवद्वारार्गलं महत्।
बिन्दु द्विरर्गलं भित्वा दुर्भेद्यं त्रिदशैरपि॥
udghāṭayet tato yogī dvāraṁ śivadvārārgalaṁ mahat |
bindu dvirargalaṁ bhitvā durbhedyaṁ tridaśairapi ||

ब्रह्माण्डोदरमित्युक्तं योगिनी सिद्धि सेवितम्।
तदेतदंगुलोत्सेधं कपाले स व्यवस्थितम्॥
brahmāṇḍodaramityuktaṁ yoginī siddhi sevitam |
tadetadaṁgulotsedhaṁ kapāle sa vyavasthitam ||

शक्तिचक्र प्रवेशेन सर्वसिद्धिर्भवेद्ध्रुवम्॥
śakticakra praveśena sarvasiddhirbhaveddhruvam ||

आदिनाथः -
ādināthaḥ -

अपानवृत्तिमाकृष्य प्राणो गच्छति मध्यमे।
राजते गगनाम्भोजे राजयोगस्तु तेन वै।
एतत् साधनमार्गस्य लक्षणं वक्ष्यतेधुना॥
apānavṛttimākṛṣya prāṇo gacchati madhyame |
rājate gaganāmbhoje rājayogastu tena vai |
etat sādhanamārgasya lakṣaṇaṁ vakṣyatedhunā ||

प्राकाराणि शरीरस्य षडुक्तानि त्वगादिभिः।
तन्मध्ये सुषिरं सूक्ष्मं तत्रलिग़्गं शिवालयम्॥
prākārāṇi śarīrasya ṣaḍuktāni tvagādibhiḥ |
tanmadhye suṣiraṁ sūkṣmaṁ tatraliġgaṁ śivālayam ||

तस्य शक्ति स्थिता बाह्ये प्राकारद्वारमण्टपे।
तटिद्वलयसंकाशां सुप्तांपति विलोलुपाम्॥
tasya śakti sthitā bāhye prākāradvāramaṇṭape |
taṭidvalayasaṁkāśāṁ suptāṁpati vilolupām ||

प्राकारपालके नैव कवाटानां प्रभेदनम्।
हुंकारं च षडिति पूर्वमेवोक्तम्।
कृत्वातां प्रापयेच्छम्भुं तत्क्षणाद्ब्रह्मवर्त्मना॥
prākārapālake naiva kavāṭānāṁ prabhedanam |
huṁkāraṁ ca ṣaḍiti pūrvamevoktam |
kṛtvātāṁ prāpayecchambhuṁ tatkṣaṇādbrahmavartmanā ||

पूरयेन्मारुतं दिव्यं सुषुम्ना पश्चिमे मुखे।
शनैः संबोधयेच्छक्तिं कुण्डली मनुनैवताम्॥
pūrayenmārutaṁ divyaṁ suṣumnā paścime mukhe |
śanaiḥ saṁbodhayecchaktiṁ kuṇḍalī manunaivatām ||

पवनेन समाकृष्य योजयेत् पतिना सह॥ इति।
pavanena samākṛṣya yojayet patinā saha || iti |

शक्तिध्यानं विनाशक्त्या हीनो योगी प्रजायते।
शक्ति ध्यानप्रयोगेण शक्तियुक्तो भवेद्ध्रुवम्॥ इति।
śaktidhyānaṁ vināśaktyā hīno yogī prajāyate |
śakti dhyānaprayogeṇa śaktiyukto bhaveddhruvam || iti |

यदा तु योगिनो बुद्धिस्त्यक्तुं देहमिमं भवेत्।
तदा स्थिरासनो भूत्वा मूलाच्छक्तिं समुज्ज्वलाम्।
कोटि सूर्यप्रतीकाशां भावयेच्चिरमात्मवित्॥
yadā tu yogino buddhistyaktuṁ dehamimaṁ bhavet |
tadā sthirāsano bhūtvā mūlācchaktiṁ samujjvalām |
koṭi sūryapratīkāśāṁ bhāvayecciramātmavit ||

आपादमस्तमस्तपर्यन्तं प्रसृतं जीवमात्मनः।
संहृत्य क्रमयोगेन मूलाधारात्पदं नयेत्॥
āpādamasta(masta)paryantaṁ prasṛtaṁ jīvamātmanaḥ |
saṁhṛtya kramayogena mūlādhārātpadaṁ nayet ||

तत्र कुण्डलिनी शक्तिं संवर्तानिलसन्निभाम्।
जिह्वानलं चेन्द्रियाणि ग्रसन्तीं चिन्तयेद्धिया॥
tatra kuṇḍalinī śaktiṁ saṁvartānilasannibhām |
jihvānalaṁ cendriyāṇi grasantīṁ cintayeddhiyā ||

संप्राप्य कुम्भकावस्थां तटिद्वलयभासुराम्।
मूलादुन्नीय देवेशि स्वाधिष्ठान पदं नयेत्।
तत्रस्थं जीवमखिलं ग्रसन्तं चिन्तयेच्चताम्॥
saṁprāpya kumbhakāvasthāṁ taṭidvalayabhāsurām |
mūlādunnīya deveśi svādhiṣṭhāna padaṁ nayet |
tatrasthaṁ jīvamakhilaṁ grasantaṁ cintayeccatām ||

तटित्कोटिप्रतीकाशां तस्मादुन्नीयसत्वरम्।
मणिपूरपदं प्राप्य तत्र पूर्ववदाचरेत्॥
taṭitkoṭipratīkāśāṁ tasmādunnīyasatvaram |
maṇipūrapadaṁ prāpya tatra pūrvavadācaret ||

समुन्नीयपुनः स्थानात् अनाहतपदं नयेत्।
तत्रस्थित्वा क्षणं देवि पूर्ववद् ग्रथितं स्मरेत्॥
samunnīyapunaḥ sthānāt anāhatapadaṁ nayet |
tatrasthitvā kṣaṇaṁ devi pūrvavad grathitaṁ smaret ||

तत्रापि चिन्तयेद् देवि पूर्ववद् योगमात्मवित्।
तस्मादुन्नीयभ्रूमध्यं नीत्वा जीवं ग्रसन् स्मरेत्॥
tatrāpi cintayed devi pūrvavad yogamātmavit |
tasmādunnīyabhrūmadhyaṁ nītvā jīvaṁ grasan smaret ||

परामृत महाम्भोधौ विश्रामं सम्यगाचरेत्।
तत्रस्थं परमं देवं शिवं परमकारणम्।
शक्त्या सहसमायोज्य तयोरैक्यं विभावयेत्॥
parāmṛta mahāmbhodhau viśrāmaṁ samyagācaret |
tatrasthaṁ paramaṁ devaṁ śivaṁ paramakāraṇam |
śaktyā sahasamāyojya tayoraikyaṁ vibhāvayet ||

यदि वञ्चि तु मुद्युक्तः कालंकालविभागवित्।
यावद्वजति तं कालं तावत् तत्र सुखं वसेत्॥
yadi vañci tu mudyuktaḥ kālaṁkālavibhāgavit |
yāvadvajati taṁ kālaṁ tāvat tatra sukhaṁ vaset ||

ब्रह्मद्वारार्गलस्याधो देहे कालप्रयोजनम्।
यदा देव्यात्मकः कालमति क्रान्तः प्रविश्यति॥
brahmadvārārgalasyādho dehe kālaprayojanam |
yadā devyātmakaḥ kālamati krāntaḥ praviśyati ||

तदा ब्रह्मार्गलं भित्वा शक्तिं मूलपदं नयेत्।
शक्ति देहान् प्रसूयन्ति स्वजीवं चेन्द्रियैः सह॥
tadā brahmārgalaṁ bhitvā śaktiṁ mūlapadaṁ nayet |
śakti dehān prasūyanti svajīvaṁ cendriyaiḥ saha ||

तत्तत्कर्माणि संयोज्य स्वस्था देहे सुखं भवेत्।
अनेन देवि योगेन वञ्चयेत् कालमागतम्।
यदा मानुष्यकं देहं त्यक्तुमिच्छा प्रवर्तते॥
tattatkarmāṇi saṁyojya svasthā dehe sukhaṁ bhavet |
anena devi yogena vañcayet kālamāgatam |
yadā mānuṣyakaṁ dehaṁ tyaktumicchā pravartate ||

ततः परमसन्तुष्टः ब्रह्मस्थानगतं शिवम्।
शक्त्या संयोज्यनिर्भिद्य व्योमब्रह्मशिलं व्रजेत्॥
tataḥ paramasantuṣṭaḥ brahmasthānagataṁ śivam |
śaktyā saṁyojyanirbhidya vyomabrahmaśilaṁ vrajet ||

व्योमतत्वं महाव्योम्नि वायुतत्वमथानिले।
तेजस्तत्वं तथा तेजस्यप्तत्वं जलमण्डले॥
vyomatatvaṁ mahāvyomni vāyutatvamathānile |
tejastatvaṁ tathā tejasyaptatvaṁ jalamaṇḍale ||

धरा तत्वं धराभागे निरालंबे मनः परे।
व्योमादि गुणतत्वेषु स्वेन्द्रियाणि निवेदयेत्॥
dharā tatvaṁ dharābhāge nirālaṁbe manaḥ pare |
vyomādi guṇatatveṣu svendriyāṇi nivedayet ||

एवं सांसारिकं त्यक्त्वा परतत्वा वलं काः।
अदृष्टः परतत्वाद्यैर्भित्वा सूर्यस्यमण्डलम्॥
evaṁ sāṁsārikaṁ tyaktvā paratatvā valaṁ kāḥ |
adṛṣṭaḥ paratatvādyairbhitvā sūryasyamaṇḍalam ||

परतत्वे परेशानि शिवे लीनः शिवायते।
न कल्पकोटि साहस्रैः पुनरावर्तनं भवेत्॥
paratatve pareśāni śive līnaḥ śivāyate |
na kalpakoṭi sāhasraiḥ punarāvartanaṁ bhavet ||

अनुग्रहायलोकानां यदि देहं न सन्त्यजेत्।
प्रलयान्ते तनुं त्यक्त्वा स्वात्मन्ये वाति वर्तते॥
anugrahāyalokānāṁ yadi dehaṁ na santyajet |
pralayānte tanuṁ tyaktvā svātmanye vāti vartate ||

इत्येषा खेचरीमुद्रा खेचराधिपतिर्भवेत्।
जन्ममृत्युजरारोगवलीपलितनाशिनी॥
ityeṣā khecarīmudrā khecarādhipatirbhavet |
janmamṛtyujarārogavalīpalitanāśinī ||

अनया सदृशी विद्या क्वचिच्छास्त्रान्तरे न हि॥
anayā sadṛśī vidyā kvacicchāstrāntare na hi ||

खेचरी मेलनं देवि सुगुप्तं न प्रकाशयेत्॥ इति।
khecarī melanaṁ devi suguptaṁ na prakāśayet || iti |

योगसारमञ्जर्याम् -
yogasāramañjaryām -

चुबुकं योजयेज्जिह्वां षोडशस्वरमण्डले।
भ्रूमध्ये चक्षुषी न्यस्य जिह्वामूर्ध्वं प्रसारयेत्॥
cubukaṁ yojayejjihvāṁ ṣoḍaśasvaramaṇḍale |
bhrūmadhye cakṣuṣī nyasya jihvāmūrdhvaṁ prasārayet ||

संप्राप्य कुम्भकावस्थामिडापिग़्गलरोधनात्।
मूलशक्तिं समाबोध्यभित्वाषट्सरसी रूहान्॥
saṁprāpya kumbhakāvasthāmiḍāpiġgalarodhanāt |
mūlaśaktiṁ samābodhyabhitvāṣaṭsarasī rūhān ||

तटित्सहस्रसग़्काशां ब्रह्माण्डोदर मध्यगाम्।
धमनि शिवामृताम्भोधौ सन्निवेश्य चिरं वसेत्॥
taṭitsahasrasaġkāśāṁ brahmāṇḍodara madhyagām |
dhamani śivāmṛtāmbhodhau sanniveśya ciraṁ vaset ||

यथाब्रह्ममये धात्रि योगी वसति लीलया।
तथा तज्जीववद् देहं भाति स्फुरति तत्पदम्॥
yathābrahmamaye dhātri yogī vasati līlayā |
tathā tajjīvavad dehaṁ bhāti sphurati tatpadam ||

अनेन देवि योगेन दिनसप्तकमाचरेत्।
यथा तथा स भवति जरामरणवर्जितः॥
anena devi yogena dinasaptakamācaret |
yathā tathā sa bhavati jarāmaraṇavarjitaḥ ||

मासमात्रप्रयोगेण जीवेदाचन्द्रतारकम्।
यदा ब्रह्मपुरं भित्वा योगी व्रजति लीलया॥
māsamātraprayogeṇa jīvedācandratārakam |
yadā brahmapuraṁ bhitvā yogī vrajati līlayā ||

तदा शिवत्वमाप्नोति त्यक्त्वा देहमिमं प्रिये।
न पुनः पीयते मातुः स्तनं यद्भव हेतुकम्॥
tadā śivatvamāpnoti tyaktvā dehamimaṁ priye |
na punaḥ pīyate mātuḥ stanaṁ yadbhava hetukam ||

इदं गुह्यतमं शास्त्रं सर्वेषां न प्रकाशयेत्।
अपरीक्षितवृत्तस्य स शीघ्रं नश्यति प्रिये॥
idaṁ guhyatamaṁ śāstraṁ sarveṣāṁ na prakāśayet |
aparīkṣitavṛttasya sa śīghraṁ naśyati priye ||

डम्भाहं कारहीनाय धार्मिकाय दृढाय च।
समक् शुश्रूषशीलाय दातव्यं मन्त्रपुष्पकम्॥
ḍambhāhaṁ kārahīnāya dhārmikāya dṛḍhāya ca |
samak śuśrūṣaśīlāya dātavyaṁ mantrapuṣpakam ||

अविज्ञाय च यः कुर्यात् गुरुवाक्यामृतं विना।
भक्ष्यते सोथिराद्देवि योगिनीभिर्नसंशयः॥
avijñāya ca yaḥ kuryāt guruvākyāmṛtaṁ vinā |
bhakṣyate sothirāddevi yoginībhirnasaṁśayaḥ ||

य इदं परमं शास्त्रं ग्रन्थतश्चार्यतश्च हा।
गुरुवक्त्रात् तु लभ्येत स परां सिद्धिमाप्नुयात्॥
ya idaṁ paramaṁ śāstraṁ granthataścāryataśca hā |
guruvaktrāt tu labhyeta sa parāṁ siddhimāpnuyāt ||

य इदं परमं गुह्यं खेचरी मेलनं वदेत्।
स एव हि गुरुर्देवि नान्योस्ति परमेश्वरि॥
ya idaṁ paramaṁ guhyaṁ khecarī melanaṁ vadet |
sa eva hi gururdevi nānyosti parameśvari ||

बहुधा क्लिश्यमानाय भक्तायानन्य चेतसे।
एकान्ते विजने स्थाने प्रवक्तव्यं विपश्चिता॥
bahudhā kliśyamānāya bhaktāyānanya cetase |
ekānte vijane sthāne pravaktavyaṁ vipaścitā ||

व्याख्यानकाले कर्तव्यः पूजाविधिरशाम्यतः।
भक्ष्यभोज्यादिभिर्युक्तं कस्तूरी चन्दनादिभिः।
पूजयेच्छास्त्रविधिना विद्यापुस्तकमादरात्॥
vyākhyānakāle kartavyaḥ pūjāvidhiraśāmyataḥ |
bhakṣyabhojyādibhiryuktaṁ kastūrī candanādibhiḥ |
pūjayecchāstravidhinā vidyāpustakamādarāt ||

अथवा यद्यशक्तस्तु मानसेत घनामृतैः।
सन्तर्प्यपूज्यविधिना व्याख्यानं गुप्तमाचरेत्।
यस्य हस्ते स्थितं दिव्यं विद्यापुस्तकमीश्वरि॥
athavā yadyaśaktastu mānaseta ghanāmṛtaiḥ |
santarpyapūjyavidhinā vyākhyānaṁ guptamācaret |
yasya haste sthitaṁ divyaṁ vidyāpustakamīśvari ||

तस्य मूर्तिगतं देवि सकलज्ञानसागरम्।
यथार्थग्रन्थतश्चेदमर्थतश्च विदिष्यति॥
tasya mūrtigataṁ devi sakalajñānasāgaram |
yathārthagranthataścedamarthataśca vidiṣyati ||

अशेषेण जगद्धात्रि स एव परमेश्वरः।
सर्वज्ञेन शिवेनोक्तमिदं जन्मार्बुदैरपि॥
aśeṣeṇa jagaddhātri sa eva parameśvaraḥ |
sarvajñena śivenoktamidaṁ janmārbudairapi ||

दुलभं शास्त्रसारं तु विद्याज्ज्ञानप्रकाशकम्।
द्वावेव पुरुषौ लोके सिद्धः साधक एव च।
अभ्यासे नैव सततं यस्यमुत्परिवर्तते॥
dulabhaṁ śāstrasāraṁ tu vidyājjñānaprakāśakam |
dvāveva puruṣau loke siddhaḥ sādhaka eva ca |
abhyāse naiva satataṁ yasyamutparivartate ||

अचिरान्मनसस्सिद्धिं स योगीसाधकः स्मृतः।
सम्यगभ्यस्य विज्ञाय यः समं मेलनं चरेत्॥
acirānmanasassiddhiṁ sa yogīsādhakaḥ smṛtaḥ |
samyagabhyasya vijñāya yaḥ samaṁ melanaṁ caret ||

सर्वसाधारणत्वेन विकल्प कुटिलोज्झितः।
कर्ताभर्ता च संहर्ता नित्यतृप्तो निरामयः॥
sarvasādhāraṇatvena vikalpa kuṭilojjhitaḥ |
kartābhartā ca saṁhartā nityatṛpto nirāmayaḥ ||

पश्यत्यात्माविभेदेन जगदेतच्चराचरम्।
स योगी सर्वविच्छ्रीमान् सिद्ध इत्युच्यते बुधैः।
सहस्रारे महापद्मे स्थित्वा योगी विराजते॥
paśyatyātmāvibhedena jagadetaccarācaram |
sa yogī sarvavicchrīmān siddha ityucyate budhaiḥ |
sahasrāre mahāpadme sthitvā yogī virājate ||

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन खेचरी मेलनं चरेत्॥ इति। अयं भावः -
tasmāt sarvaprayatnena khecarī melanaṁ caret || iti | ayaṁ bhāvaḥ -

द्वादशान्तादि मूलाधारान्तं विभाव्य पराशक्तिः स्वयं
कुण्डलिन्यादि रूपं भूत्वा सर्वाधारेषु सर्ववर्णेषु सूत्ररूपेण स्थिता।
dvādaśāntādi mūlādhārāntaṁ vibhāvya parāśaktiḥ svayaṁ
kuṇḍalinyādi rūpaṁ bhūtvā sarvādhāreṣu sarvavarṇeṣu sūtrarūpeṇa sthitā |

तदुक्तं शारदातिलके -
taduktaṁ śāradātilake -

शंखावर्तक्रमाद्देवी सर्वमावृत्य तिष्ठति॥ इति।
śaṁkhāvartakramāddevī sarvamāvṛtya tiṣṭhati || iti |

दक्षिणामूर्ति कल्पे -
dakṣiṇāmūrti kalpe -

सूत्रेमणिमयं जगत्॥ इति।
sūtremaṇimayaṁ jagat || iti |

सूत्ररूपेण मणिरूपेण स्थिता भवति। इति। अनन्त व्रतसूत्रग्रंथि रूपेण
सूत्ररूपेण यथा तथा कमलानि कलाश्च निर्मितवती।
sūtrarūpeṇa maṇirūpeṇa sthitā bhavati | iti | ananta vratasūtragraṁthi rūpeṇa
sūtrarūpeṇa yathā tathā kamalāni kalāśca nirmitavatī |

तदुक्तं योगयाज्ञवल्क्ये -
taduktaṁ yogayājñavalkye -

अष्टप्रकृतिरूपा सा ह्यष्टधा कुण्डलाकृतिः॥ इति।
aṣṭaprakṛtirūpā sā hyaṣṭadhā kuṇḍalākṛtiḥ || iti |

भगवद्गीतासु -
bhagavadgītāsu -

भूमिरापो नलो वायुः खं मनोबुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥ इति।
bhūmirāpo nalo vāyuḥ khaṁ manobuddhireva ca |
ahaṁkāra itīyaṁ me bhinnā prakṛtiraṣṭadhā || iti |

अत एवाधाराद्यष्ट पद्मेषु अष्टवक्रेण स्थिता। पृथिव्यादयः पञ्चमनो
बुद्धिरहंकारा अष्टप्रकृतयः। भिन्नरूपत्वात् अष्टधाकुटिलीकृता।
द्वादशान्ते गुरुपादुका युग्मस्य पीठरूपे स्थित पद्मस्य नालरूपेण
कर्णिकारूपेण स्थितवती। एतदर्थं गुरुपादुका स्मरणा वसरे उच्यते।
सहस्रारे सूक्ष्मसृष्ट्यर्थं जगत्पावनार्थं बुद्धिरूपेणपत्यासह
स्थिता। तदुक्तं -
ata evādhārādyaṣṭa padmeṣu aṣṭavakreṇa sthitā | pṛthivyādayaḥ pañcamano
buddhirahaṁkārā aṣṭaprakṛtayaḥ | bhinnarūpatvāt aṣṭadhākuṭilīkṛtā |
dvādaśānte gurupādukā yugmasya pīṭharūpe sthita padmasya nālarūpeṇa
karṇikārūpeṇa sthitavatī | etadarthaṁ gurupādukā smaraṇā vasare ucyate |
sahasrāre sūkṣmasṛṣṭyarthaṁ jagatpāvanārthaṁ buddhirūpeṇapatyāsaha
sthitā | taduktaṁ -

सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसे॥ इति।
sahasrāre padme saha rahasi patyā viharase || iti |

आज्ञाचक्रेण प्रज्ञायुक्तमनोरूपेण शंभुना सह स्थिता।
ājñācakreṇa prajñāyuktamanorūpeṇa śaṁbhunā saha sthitā |

तदुक्तं -
taduktaṁ -

तवाज्ञा चक्रस्थं तपन शशिकोटिद्युतिधरम्॥ इति।
tavājñā cakrasthaṁ tapana śaśikoṭidyutidharam || iti |

विशुद्धे आज्ञाकाशरूपेण अमृतकुण्डलिरूपेण स्थिता।
viśuddhe ājñākāśarūpeṇa amṛtakuṇḍalirūpeṇa sthitā |

तदुक्तं -
taduktaṁ -

शशिकिरणसारूप्य सरणीति। अनाहते वायुरूपेण हृदयकमलस्य
नालरूपेण स्थिता। सर्वकारणरूपेण स्वाधिष्ठाने स्थिता।
स्वाधिष्ठानेदुग्धामृतवर्षेण जगत्प्लावनार्थं मणिपूरे स्थिता।
śaśikiraṇasārūpya saraṇīti | anāhate vāyurūpeṇa hṛdayakamalasya
nālarūpeṇa sthitā | sarvakāraṇarūpeṇa svādhiṣṭhāne sthitā |
svādhiṣṭhānedugdhāmṛtavarṣeṇa jagatplāvanārthaṁ maṇipūre sthitā |

तदुक्तं याज्ञवल्क्ये -
(taduktaṁ yājñavalkye -

द्वादशारयुतं चक्रं तेन देहः प्रतिष्ठितः।
चक्रेस्मिन् भ्रमते जीवः पुण्यः पापः प्रचोदितः॥
dvādaśārayutaṁ cakraṁ tena dehaḥ pratiṣṭhitaḥ |
cakresmin bhramate jīvaḥ puṇyaḥ pāpaḥ pracoditaḥ ||

सा शक्ति पुण्यपाप रूपत्वात् स्थूलसृष्ट्यर्थं पत्यासह क्रीडयित्वा
मूलाधारे स्थिता।
sā śakti puṇyapāpa rūpatvāt) sthūlasṛṣṭyarthaṁ patyāsaha krīḍayitvā
mūlādhāre sthitā |

तदुक्तं याज्ञवल्क्ये -
taduktaṁ yājñavalkye -

द्वादशारयुतं चक्रं तेन देहः प्रतिष्ठितः।
चक्रेस्मिन् भ्रमते जीवः पुण्यपापप्रचोदितः॥
dvādaśārayutaṁ cakraṁ tena dehaḥ pratiṣṭhitaḥ |
cakresmin bhramate jīvaḥ puṇyapāpapracoditaḥ ||

सा शक्तिः पुण्यपापरूपत्वात् सर्वकारणम्। अमृतवर्षेण स्वाधिष्ठाने
दग्ध जगत्प्लावनार्थं मणिपूरे मेघरूपेण स्थिता। मणिपूराद्धृदये
उड्डीयवर्षन्ती। तदुक्तं तव श्यामं मेघं कमपि
मणिपूरेकशरणमिति। स्थूलसृष्ट्यर्थं पत्यासहक्रीडयित्वा मूलाधारे
स्थिता।
तदुक्तं तवाधारे मूले सह समय चेति॥ एवं प्रवृत्तिः कुण्डलिन्याः इति।
sā śaktiḥ puṇyapāparūpatvāt sarvakāraṇam | amṛtavarṣeṇa svādhiṣṭhāne
dagdha jagatplāvanārthaṁ maṇipūre megharūpeṇa sthitā | maṇipūrāddhṛdaye
uḍḍīyavarṣantī | taduktaṁ tava śyāmaṁ meghaṁ kamapi
maṇipūrekaśaraṇamiti | sthūlasṛṣṭyarthaṁ patyāsahakrīḍayitvā mūlādhāre
sthitā |
taduktaṁ tavādhāre mūle saha samaya ceti || evaṁ pravṛttiḥ kuṇḍalinyāḥ iti |

॥ इति योगसारसंग्रहे कुण्डलिनी स्वरूपक्रियानिरूपणं नाम
चतुर्दशोध्यायः॥
|| iti yogasārasaṁgrahe kuṇḍalinī svarūpakriyānirūpaṇaṁ nāma
caturdaśodhyāyaḥ ||